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१७२ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
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दीपक प्रीति पतंग जेउं जनम निबाह करेउं । नेवछावरि चहुँ पास होइ कंठ लागि जिउ देउ || पदमावत में जायसी ने कथा को प्रतीकों के आधार पर खड़ा किया है । कथा में चित्तोड़ तन का प्रतीक और राजा रतनसेन मन का प्रतीक है । सिंहल उसका हृदय है, पद्मावती बुद्धि है, नागमती दुनिया-धंधा है, : सुआ गुरु है और राघव शैतान तथा अलाउद्दीन माया के प्रतीक हैं। र वास्तव में हठयोग की साधना-प्रक्रिया को जायसी ने प्रतोकों के माध्यम से समझाने की चेष्टा को है । सिंहलगढ़ का जब वे वर्णन करते हैं तो.. कुंडलिनी और ब्रह्माण्ड तक का चित्र उपस्थित हो जाता है :
तहि कुरुम बासुकि कै पीठी | ऊपर इन्द्रलोक पर डोठी ॥ परा खोह चहुंदिसि तस बांका। कांपै जांधि जाइ नहि झांका ॥ अगम असूझ देखि डर खाई । परै सो संप्त पतारन्ह जाई ॥ नव पंवरी बांकी नव खंडा । वहुं जो चढ़ जाइ ब्रह्मंडा || कंचन कोट जरे कौसीसा | नखतन्ह भरा बीजु अस दीसा ॥ लंका चाहि ऊंच गढ़ ताका । निरखि न जाइ दिस्टि मन थाका ॥
हिज न समाइ दिस्टि नहि पहुंचे जानहु ठाढ़ सुमेरु |
कह लगि कहाँ ऊंचाई ताकरि कह लगि बरनौं फेरु ॥४०॥ गढ़ में जो नौ द्वार और नौ मंजिलें हैं वही शरीर के नौ द्वारों के प्रतीक हैं । जो इन नवों स्थानों को पार कर लेता है वह ब्रह्माण्ड को पा लेता है । परन्तु उसे पाने के लिए गढ़ के वज्र किवाड़ों को तोड़कर जाना होता है जो इतना सरल नहीं । उसको ऊंचाई भी अधिक है। नौ खण्डों पर नो द्वार हैं । उनमें वज्र के किवाड़ लगे हैं। उन पर चार पड़ाव देकर चढ़ना चाहिये और इसके लिए जो सत्यमार्ग का अनुसरण करेगा वही चढ़ पायेगा ।
नवौ खंड नव पंवरों और तहं बज्र केवार ।
चारि बसेरे सों चढ़े सत सौं चढ़ जो पार ॥
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१. वही, पृ० ७०९.
२. जायसी - ग्रन्थावली, उपसंहार पृ० ३४१.
३. पदमावत, पृ० ४०.
४. वही, पृ० ४१.