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________________ . १७० : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक सूफी काव्यों में सूर्य-चन्द्र का उपमानों के रूप में बहुतायत से प्रयोग किया गया है। भारतीय शास्त्रों में सूर्य को अग्नितत्त्व और चन्द्रमा को सोमतत्त्व माना है । यह जगत् इन्हीं दोनों तत्त्वों का प्रतिफल है। सूर्य को अग्नितत्त्व मानने का मूल कारण यह है कि वही सांसारिक जीवन में प्राणों का संचार करता है । सोमतत्त्व अर्थात् शीतल तत्त्व अर्थात् मातृतत्त्व है । जब सोमतत्त्व और अग्नितत्त्व का मिलन होता है तब सृष्टि की रचना होती है। जब तक सूर्य और चन्द्र या यों कहें कि पुरुषतत्त्व और स्त्रीतत्त्व का संयोग न हो तो सृष्टि ही न हो। इसी रूप को ध्यान में रखकर सूफियों के प्रेमी-प्रेमिकाओं अथवा नायक-नायिकाओं तथा जीवात्मा व परमात्मा के लिए प्रयुक्त सूर्य-चन्द्र की व्याख्या से ज्ञात होता है कि उन्होंने अनेक बार प्रतीकात्मक ढंग से इन शब्दों का प्रयोग किया है। रतनसेन से पद्मावती के सौन्दर्य के विषय में जब सुग्गा कहता है कि जिस प्रकार उगते हुए सूर्य की धूप से चाँद छिप जाता है उसी प्रकार सब स्त्रियाँ पद्मावती के रूप के आगे छिप जाती हैं : उअत सूर जस देखिअ चांद छपै तेहि धूप । जैसे सबै जाहिं छपि पदुमावति के १ रूप ॥ तब रतनसेन को कहना पड़ता है. : तुझं सुरंग मूरति वह कही । चित महं लागि चित्र होइ रही ॥ जनु होइ सुरुज आइ मन बसी । सब घट पूरि हिएं परगसी ॥ अर्थात् पद्मावतीरूपी सूर्य ने उसके शरीर में प्रवेशकर हृदय को प्रकाशित कर दिया । प्रकाशित ही नहीं किया अपितु उसे सूर्यरूप कर दिया और स्वयं छायारूप हो गई : अब हौं सुरुज चाँद वह छाया ľ अब रतनसेन सूर्य है और पद्मावती छाया और चन्द्र है । यही उपयुक्त भी है । स्त्रीतत्त्व ही शीतल और सोम होता है । इन दोनों का लय या १. पदमावत, पृ० ९२. २. वही, पृ० ९३. ३. वही.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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