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________________ सूफ़ी काव्यों में प्रतीक-विधान और भारतीय प्रतीक- विद्या : १६७ 'मानसर' समुद्र के वर्णन को देखकर कोई सहज में ही इसे प्रतीकात्मक अर्थ से परिपूर्ण कहेगा : देखि मानसर रूप सोहावा । हियं हुलास पुरइनि होइ छावा ॥ गा अंधियार रैनि मसि छूटी । भा भिनुसार किरिन रबि फूटी ॥ अस्तु अस्तु साथी सब बोले । अंध जो अहे नैन बिधि खोले ॥ कंवल बिगस तह बिहंसी देही । भंवर दसन होइ होइ रस लेहीं ॥ हंस हंस औ कराह किरोरा । चुर्नाहं रतन मुकताहल हीरा ॥ जौं अस साधि आव तप जोगू । पूज़ै आस मान रस भोगू の भंवर जो मनसा मानसर लोन्ह कंवल रस आइ । घुन जो हियाव न कै सका झूर काठ तस खाइ ॥ १५८ ॥' कवि उसमान ने साधना की शरीयत तरीक़त, हक़ीकत और मारि फत की अवस्थाओं के प्रतीकस्वरूप भोगपुर, गोरखपुर, नेहनगर और रूपनगर का वर्णन किया है । साधक यात्री जब रूपनगर को प्रस्थान करता है तो सर्वप्रथम भोगपुर पड़ता है । वास्तव में यह भोग-विलास सामग्री का प्रतीक है । इस नगर में इन्द्रियाकर्षक वस्तुएँ हैं परन्तु साधक उनकी ओर बिना आकर्षित हुए आगे बढ़ता है । मार्ग तो दुरूह है ही, इसी से कहा है कि इस पर वही चल सकता है जिसका कलेजा लोहे का हो : २ जाइ सोई जो जिउ परतेजा । सार पांसुली लोह करेजा ॥ - जब भोगपुर में साधक अपनी विजय पाता है तब वह गोरखपुर पहुंचकर गुरु की सहायता से योग साधता है। जब उसे अन्तर्दृष्टि प्राप्त हो जाती है तब वह नेहनगर को प्रस्थान करता है और वहीं पहुँच कर उसे प्रेम की पूर्ण fear हो जाती है । जब सांसारिक कोई मोह नहीं रहता तब वह रूपनगर में पहुँचता है। यही उसका अंतिम लक्ष्य था । परन्तु यह मार्ग असिधार के तुल्य है। सूफी कवियों ने सात समुद्र अथवा चार अवस्थाओं के विवेचन में अलग-अलग उपमानों का प्रयोग किया है । नूरमुहम्मद ने १. पदमावत, पृ० १५१. २. चित्रावली, पृ० ७९. ३. वही, पृ० ८४.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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