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१६६ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
दधि समुद्र का वर्णन तीसरे मुकाम के समकक्ष है। इसमें 'दधि' का जो रूपक बांधा है वह स्पष्ट ही प्रतीकात्मक है। वे कहते हैं कि वह जीव धन्य है जो प्रेम से दग्ध हुआ हो । वही दही में से मथकर घी निकालता है। दही की एक बूंद से सब दूध जम जाता है, वह खटाई को एक बूंद से पानी हो जाता है। शरीर प्राणरूपो दही से भरी मटकी है। इसमें मनरूपी मथानी से प्राणरूपो दही पर चोट किए बिना घी अर्थात् परम ज्ञान की उपलब्धि नहीं हो सकती :
दधि समुंद्र देखत मन डहा। पेम क लुबुध दगध पै सहा॥ पेम सों दाधा धनि वह जीऊ । दही माहि मथि काढ़े घोऊ ॥ दधि एक बूंद जाम सब खीरू । कांजी बुंद बिनसि होइ नीरू॥
स्वांस दहेंडि मन मथनी गाढ़ी। हिएं चोट बिनु फूट न साढ़ी ॥ जायसी ने सूफियों के सात मकामातों या चार अवस्थाओं की ओर एकाधिक बार संकेत किया है। वे एक स्थान पर इन्हें सात खंडों की संज्ञा देते हैं। उनका कहना है कि मार्ग अगम्य है परन्तु वह मार्ग सुई की नोक पर चलने के समान है। उसका चढ़ना अत्यधिक तोखा है और सात खंड चढ़ने पड़ते हैं।
पै सुठि अगम पंथ बढ़ बांका। तस मारग जस मुई क नाका ॥
बांक चढ़ाव सात खंड ऊंचा। चारि बसेरे जाइ पहँचा ॥२ सिंहल द्वीप पर पहुँचना अत्यधिक कठिन है क्योंकि मार्ग में सात समुद्र पड़ते हैं जो अथाह हैं :
खार खीर दहि उदधि सुरा जल पुनि किलकिला अकूत ।
को चढ़ि बांधै समुंद ये सातौं है काकर अस बूत.॥ जायसी ने सातवें समुद्र मानसर का जो वर्णन किया है उसको तुलना सूफियों को अंतिम फना की स्थिति से को जा सकती है। सातवें 'मानसर' में आकर साधक का अज्ञानांधकार अथवा तमस् मिट जाता है तथा प्रात:कालीन प्रकाश को ज्योति के समान उसकी आत्मा निर्मल हो जाती है ।
१. पदमावत, पृ० १४६. २. जायसी-ग्रन्थावली, पृ० ३१५. ३. पदमावत, पृ० १३७.