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सूफ़ी काव्यों में प्रतीक-विधान और भारतीय प्रतीक-विद्या : १६५
कहेह्नि आजु कछु थोर पयाना। कालि पयान दूरि है जाना ॥
ओहि मेलान जब पहुंचिहि कोई । तब हम कहब पुरुष भल सोई॥ एहि आगे परबत को पाटी। बिषम पहार अगम सुठि घाटो॥ बिच बिच खोह नदी औ नारा । ठावहि ठांव उठहिं बटपारा॥ हनिवंत केर सुनब पुनि हांका । दहं को पार होइ को थाका ॥ अस मन जानि संभारहु आगू । अगुआ केरि होहु पछलागू ॥ करहिं पयान भोर उठि नितहि कोस दस जाहि।
पंथी पंथाँ जे चलहिं ते का रहन ओनाहि ॥१३६ ॥ वास्तव में जो बटोही मार्गतय कर रहे हैं, वे क्या कभी टिके रहने के लिए ठहरते हैं ? उन्हें तो लक्ष्य तक पहुंचना रहता है । अतः विश्राम के लिए तथा अपनो स्थिति को और सुदृढ़ करने के लिए रुकते हैं और पुनः चलने लगते हैं । तब तक चलते जाते है जब तक कि प्रियतम का मिलन नहीं हो जाता। नूरमुहम्मद ने सात मुकामातों का 'सात वन' को संज्ञा देकर मार्ग को बोहड़ता प्रकट की है :
अगम पंथ मो सात वन, और समुद्र अथाह । . होत न कैसेहु मग मों, अगुवा बिना निवाह॥ ___ जायसी के खार, खीर, खधि, जल, उदधि, सुरा और किलकिला नामक सात समुद्रों का उल्लेख ३ सात मुकामातों का ही द्योतक है। वर्णन करने में जायसी ने प्रतीकात्मक बोध के लिए काफी गुंजाइश छोड़ी है। सातों समुद्र मिले हुए हैं परन्तु सभी का जल एक-दूसरे से भिन्न है :
_ मिले समुंद वै सातौं बेहर बेहर नोर। तात्पर्य यह है कि सातों समुद्रों का जल भिन्न-भिन्न है परन्तु वे मिले हुए हैं। इसी प्रकार सातों मुकामातों का स्थितियाँ भिन्न-भिन्न हैं परन्तु एक स्थिति को पार किए बिना दूसरी में नहीं पहुंचा जा सकता। तृतीय
१. पदमावत, पृ० १३१. २. इन्द्रावती, पृ० १४. ३. पदमावत, पृ० १४४-१५१. ४. पदमावत, पृ० १४५.