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. . सूफ़ो काव्यों में प्रतीक-विधान और भारतीय प्रतीक-विद्या : १६१ जहं जहं बिहंसि सुभावहिं हंसी। तहं तह छिटकि जोति परगसी॥ दामिनि दमकि न सरबरि पूजा। पुनि वह जोति और को दूजा॥
बिहंसत हंसत दसन तस चमके पाहन उठे झरक्कि ।
दारिवं सरि जो न के सका फाटेउ हिया दरक्कि ॥१०७॥ इन कवियों ने दंतपंक्ति को प्रकाश का प्रतीक माना तो अधरों को अमृत का भंडार । परमात्मा की अमरत्व प्राप्त करानेवाली शक्ति के प्रतीकस्वरूप अधरों को स्वीकार किया गया। नूरमुहम्मद कहते हैं कि अधरसुधारस का पान करके मरण नहीं होता :
अधर तैहिक जिउ दाता आही, देत भलो जीवन जस चाही। तो मोहिं सोच जिउ कर नाही, होइ सुधा तेहि अधरन माहीं।
बहुर प्रान देई मोहि सोई, तित जीवन पुन मरन न होई। परन्तु यह अमृत सभी को प्राप्त नहीं होता। यह तो बड़ी साधना के माध्यम से ही संभव हो सकता है। वैसे अमृत का पान तो सभी करना चाहते हैं :
अमिअ अधर अस राजा सब जग आस करेइ।
केहि कहं कंवल बिगासा को मधुकर रस लेइ॥ - इस अपूर्व अलौकिक अधरामृत का पान साधक को परमात्मा-मिलन में सहायता देता है । 'मय' और साकी का प्रयोग भी प्रतीक के रूप में हुआ है । 'मय' के पीने से साधक का सम्बन्ध जगत् से नहीं रह जाता। वह अपने प्रियतम की ओर सम्बन्ध जोड़ने में सहायक होता है। साधक और साध्य के मिलने पर जो प्रेमरस प्रकट होता है उसे साधक मदिरारूप में पान करके प्रियतमाकार हो जाना चाहता है। प्रेमी की यही इच्छा रहती है कि उसे 'मय' का लबालब भरा प्याला मिलता जाए जिससे उसका मानस प्रियतमा में ही लगा रहे :
एक पियाला भर मद दोजै मोल पियारे मानस लीजै।
१. पदमावत, पृ० १०४. २. इन्द्रावती, पृ० ७७. ३. पदमावत, पृ० १०३. ४. इन्द्रावती, पृ० ७८.