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१६० : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
उन्ह बानन्ह अस को को न मारा। बेधि रहा सगरौं संसारा॥ गंगन नखत जस जाहि न गने । हैं सब बान ओहि के हने ॥ धरती बान बेधि सब राखी। साखा ठाढि देहिं सब साखी॥ रोवं रोवं मानुष तन ठाढ़े। सोतहि सोत बेधि तन काढ़े ॥'
जैसा कि कहा जा चुका है कि प्रियतमा का नखशिख शर्णन ही प्रतीकात्मक है। प्रतीकों की बात केशों और बरौनियों तक ही सीमित नही रहती। जायसी ने पद्मावती की वाणी की जो महिमा गाई है वह, पूर्ण रूप से प्रतीकात्मक है। ऐसी वाणी जो सबको सुखद हो वह परमात्मा की ही हो सकती है। जायसी कहते हैं कि पद्मावती के अमृत वचनों को सुनकर सबका मन अनुरक्त हो जाता है । उस स्वर ने चातक और कोकिल का स्वर हर लिया । वीणा-वंशी में भी वह स्वर नहीं मिलता। . .. वह प्रेम के अमृत से पगे वचन बोलतो है, जो सुनता है वही मस्त हो चक्कर खाने लगता है । ऋग्वेद, यजुर्वर्द, सामवेद और अथर्ववेद इन चारों वेदों में जितना ज्ञान है सब उसके पास है। उसकी एक-एक बात में चार-चार अर्थ भरे हुए हैं जिसको समझने में इन्द्र मोहित और ब्रह्मा सिर धुनने लगते हैं। अमरकोश, महाभारत, पिंगल छंद और गीता सम्बन्धी शास्त्रार्थ के पंडित भी उससे नहीं जीतते ......... इत्यादि । हरै सो सुर चात्रिक कोकिला । बीन बंसि-वह बैनु न मिला ॥ चात्रिक कोकिल रहहिं जो नाहीं। सुनि वह बैन लाजि छपि जाहीं॥ भरे पेम मधु बोलै बोला। सुनै सो माति घुमि के डोला॥ चतुर बेद मति सब ओहि पाहाँ । रिग जजु साम अथर्बन माहां ॥ एक एक बोल अरथ चौगुना । इंद्र मोह बरम्हा सिर धुना ॥ अमर भारथ पिंगल औ गीता । अरथ जूझ पंडित नहि जीता ॥१०॥ वास्तव में पद्मावती के रूप-सौन्दर्य के वर्णन में जायसी ने जो वर्णन प्रस्तुत किया है वह ब्रह्म के असीम सौन्दर्य का प्रतीक मानकर ही किया है, इसमें सन्देह नहीं। पद्मिनी की दंतपंक्ति के वर्णन से स्पष्ट ही परिलक्षित होता है कि वह ईश्वरीय प्रकाश की प्रतीक है :
जेहि दिन दसन जोति निरमई। बहुतन्ह जोति जोति ओहि भई ॥ रबि ससि नखत दीन्हि ओहि जोती। रतन पदारथ मानिक मोती॥ १. पदमावत, पृ० १०१. २. वही, पृ० १०५.