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सूफ़ी काव्यों में प्रतीक-विधान और भारतीय प्रतीक-विद्या : १५९ भारतीय दर्शन में माया को अत्यधिक बलवती माना गया है। यही माया ब्रह्म और आत्मा के मिलन में बाधक है । माया का विस्तार और प्रभाव गहरा होता है । इसके फंदे में फंसकर निकलना कठिन ही होता है। जायसी ने इसी को केशों के प्रतीक द्वारा समझाया है :
अस फंदवारे केस वै राजा परा सोस गियं फांद ।
अस्टौ कुरो नाग ओरगाने भै केसन्हि के बांद ॥' इस माया में फंसकर व्यक्ति को जीवन भर अज्ञानान्धकार में भटकना पड़ता है। मायारूपी अज्ञानान्धकार का स्वरूप ठीक केशों को कालिमा के समान होता है :
बेनी छोरि झारू जौं बारा । सरग पतार होइ अंधियारा॥ सूफी कवियों ने केश या लट का वर्णन नायिका की मुखमण्डल की शोभा बढाने के लिए किया है। प्रायः ही प्रेमाख्यानकों में नायिका के मुख पर लट को देखकर नायक मच्छित होते अवश्य दिखाया गया है। इसका . तात्पर्य यह है कि लट को देखकर व्यक्ति मार्गच्युत होता है क्योंकि लट माया की प्रतीक है । नूरमुहम्मद ने लट का वर्णन इस प्रकार किया है :
वहे उपवन पर लट सटकारी, तपी देवसभा निस अंधियारी। .मोहि परा दरसन कर चौरा, हना बान बन आँखिन फेरा। एक कहा लट सों मुख सोभा, होत अधिक लखि मुरछा लोभा।
एक कहा लट नागिन मारी, डसा गरल सों गिरा भिखारी। ‘एक कहा लट जामिन होई, राति जानि जोगी गा सोई॥
जायसी ने पद्मिनी की बरौनियों का वर्णन ब्रह्म की मोहिनी शक्ति के प्रतीक-रूप में किया है :
बरुनी का बरनौं इमि बनी । सांधे बान जानु दुइ अनी ॥ जरी राम रावन के सैना। बीच समंद भए दुइ नैना॥ वारहिं पार बनावरि सांधी। जासौं हेर लाग बिख बांधी॥
१. पदमावत, संपा०-डा. वासुदेवशरण अग्रवाल, पृ० ९६.. २. वही. ३. इंद्रावती, पृ० ६०.