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१५८ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
सभी कवि खूब करते हैं । पर उसका प्रगट दर्शन कितनों को होता है ? परदे के भीतर का दीदार हो तो तसव्वुफ का सब कुछ है ।" जैसा कि कहा जा चुका है हिन्दो- सूफी कवियों ने विदेशी सूफी काव्यों के प्रतीकों को उपयोग में यदि लिया भी तो समन्वय के साथ। यही कारण था कि जिस 'किशोर' रूप को प्रेम का प्रतीक विदेशी सूफ़ी काव्यों में माना गया उसे भारत के वातावरण में स्वीकार नहीं किया जा सका। फलतः प्रेमास्पद को 'किशोर' के स्थान पर तरुणी बनना पड़ा ।.
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मुख को सूफी प्रेमाख्यानकों में ईश्वरीय सौन्दर्य का प्रतीक माना गया है । यह कारण है कि जहाँ भी सूफी कवि प्रियतमा के मुखका वर्णन करता वहाँ उसकी उपमा दिव्य उपमानों से देता है । चित्रावली जब झरोखे से झाँकती है तो उसमान कवि को लगता है मानो चाँद स्वर्ग से झाँक रहा हो । किसी मानव का इतना असाधारण स्वरूप नहीं हो सकता जबतक : कि वह ईश्वरीय शक्ति का प्रतीक न हो । चित्रावली के रूपसौन्दर्यं का प्रकाश दिव्यज्योति का ही प्रकाश है :
चित्रावली झरोखे आई । सरग चाँद जन दीन्ह देखाई ॥ भयो अँजोर सकल संसारा । भा अलोप दिनकर मनियारा ॥ चौंधे सुर सब सुरपुर माहीं । चौंधे नाग देखि परछांही ॥ चौंधे महिमंडल नर नारी । चौंधे जल थलं जिव सब झारी ॥ चौंधे जोगी अहे तराहीं । कस अंजोर कोई जाने नाहीं ॥
चन्दायन में चाँद के मुखमण्डल को छटा से सारा भवन जगमगाता है । परन्तु इस ईश्वरीय सौन्दर्य को अज्ञानरूपी अन्धकार देखने नहीं देता । सूफियों ने केशों को अज्ञान या माया का प्रतीक माना जो 'मुखमण्डल' ब्रह्म के प्रतीक को ढँके रहते हैं। केशों को जायसी ने माया के प्रतीकार्थ में ही प्रयोग किया है | उनका कथन है :
ससि अंग मलैगिरि रानी । नागह्न झांपि लोह्र अरघानी ॥ ओनए मेघ परी जग छाहां । ससि की सरन लोह्न जनु राहां ॥
मुख
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१. डा० चन्द्रबली पांडे, तसव्वुफ और सूफ़ीमत, पृ० ९५. २. चित्रावली, पृ० १०६.
३. चन्दायन, पृ० ११६.
४. पदमावत, संपा० - डा० वासुदेवशरण अग्रवाल, पृ० ६१.