________________
सूफ़ी काव्यों में प्रतीक-विधान और भारतीय प्रतीक-विद्या : १५३ औलिया और शाहेवक्त की प्रशंसा करता है, ठीक वैसे ही अपभ्रंश के जैन चरितकाव्यों के ग्रन्थारम्भ में जिनेन्द्रदेव की स्तुति, सरस्वती-वंदना, अन्य वन्दनाओं के बाद पूर्व कवियों का गुणानुवाद या नामोल्लेखादि के बाद ही मूलकथा का प्रारम्भ होता है। तब यह क्यों न माना जाये कि हिन्दू-जैन चरितकाव्यों में अपने-अपने धर्मानुसार देवी-देवताओं को स्तुति की जो परिपाटी थी उसी रूप में सफ़ी कवियों ने भी अपने धर्मानुसार पैगम्बर आदि की स्तुति के बाद ही कथारम्भ करने के नियम का पालन किया ? मेरे कहने का तात्पर्य मात्र यह है कि सूफ़ी प्रेमाख्यानकों को अपभ्रंश चरितकाव्यों और भारतीय लोकगाथाओं से सीधे सम्बद्ध मानना अधिक उपयुक्त होगा। इस संदर्भ में डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन महत्त्वपूर्ण है-'जनसाधारण का एक और विभाग, जिसमें धर्म का स्थान नहीं था, जो अपभ्रंश साहित्य के पश्चिमी आकार से सीधे चला आ रहा था, जो गांवों की बैठकों में कथानक रूप से और गान रूप से चल रहा था, उपेक्षित होने लगा था। इन सफ़ी साधकों ने पौराणिक आख्यानों के बदले इन लोकप्रचलित कथानकों का आश्रय लेकर ही अपनी बति जनता तक पहँचाई।"
हिन्दी-सफ़ो प्रेमाख्यानकों के सूफ़ी काव्य का अधिकांश फारसी अक्षरों से लिखा गया । मसनवी फारसी साहित्य की एक शैली है। 'मसनवी' का विश्लेषण करने पर निम्नलिखित तथ्य सामने आते हैं : ....१. मसनवो के छन्दों में प्रत्येक पद अपने आप में स्वतन्त्र और पूर्ण ... होते हैं तथा वे तुकान्त होते हैं । एक चरण के शब्द दूसरे में
नहीं जाते। . २. प्रेमाख्यान, धार्मिक तथा उपदेशात्मक काव्यों के लिए मसनवी '.'. को अपनाया जाता है ।
३. 'मसनवी' स्वयं एक पूर्ण ग्रन्थ होता है और इसका नाम इसकी नायक-नायिका के नाम पर कवि रखता है। काल्पनिक नाम
भी रखे जाते हैं। १. डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य को भूमिका, चतुर्थ संस्करण,
पृ० ५०. २. डा० रामपूजन तिवारी, सूफ़ीमत-साधना और साहित्य, पृ० ५२७...