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________________ अध्याय ४ सूफ़ी काव्यों में प्रतीक-विधान और भारतीय प्रतीक-विद्या __ हिन्दी के सूफ़ी प्रेमाख्यानकों का प्रारम्भ परमात्मा की स्तुति; पैगम्बर का गुणानुवाद, गुरु या पीर का परिचय, चार यार की सिफ़त, शाहेवक्त की प्रशंसा, काव्य-रचना का कारण आदि से होता है.। इसके बाद मूलकथा प्रारम्भ होती है। मुख्य कथा कई भागों में विभक्त रहती है। उन भागों के भी उपविभाग होते हैं। उन उपविभागों के ऊपर विषयानुसार शीर्षक रहता है। काव्य के अन्त में कवि कुछ उपदेश या रचनाकाल आदि देकर कथा का समापन कर देता है। सूफ़ी काव्यों के शिल्प और हिन्दू काव्यों के शिल्प का तुलनात्मक अध्ययन आगे प्रस्तुत किया जायेगा। फिलहाल यह कहना उचित होगा कि सूफ़ी काव्यों का शिल्प हिन्दू काव्यों के शिल्प से वैषम्य की अपेक्षा साम्य हो अधिक रखता है। हिन्दी के सूफ़ी प्रेमाख्यानकों में काव्यगत रूढ़ियां एवं विषयगत शीर्षकों का चलन आदि भारतीय चरितकाव्यों की ही देन है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि 'इन प्रेमगाथा काव्यों के संबंध में पहली बात ध्यान देने की यह है कि इनकी रचना बिल्कुल भारतीय चरितकाव्यों की शैली पर न होकर फारसी की मसनवियों के ढंग पर हुई है जिनमें कथा सर्गों या अध्यायों में विस्तार के हिसाब से विभक्त नहीं होती, बराबर चली चलती है, केवल स्थान-स्थान पर घटनाओं या प्रसंगों का उल्लेख शीर्षक के रूप में दिया रहता है। यह कथन उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर प्रमाणित नहीं होता। यह सच है कि फारसी की मसनवी पद्धति और हिन्दी के सूफ़ो प्रेमाख्यानकों में समानता देखी जा सकती है लेकिन यह भी सच है कि जिस तरह सफ़ी कवि ग्रन्थारम्भ में परमात्मा, पैगम्बर की स्तुति करता है, गुरु-पीर १. जायसी-ग्रन्थावली, संपा०-पं० रामचन्द्र शुक्ल, पंचम संस्करण, भूमिका पृ० ४.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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