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१५० : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
भयउ घटा ढालन सो कारी, खरगन भये बीज चमकारी। रौंदा सीस खरग चौगान, खेलहि वीरहिं चढ़ि मैदानू । हाल आपनो आपनो चाहै, अरि को हस्त चलान सराहैं। माला खरग इनै सब कोई, बोउन खरग ठनाठन होई। गगन खरग घटा सों ठन गयऊ, हिन हिन औ धुन हन हन भयऊ।
ओनई घटा धर सों, दिन मनि रहा छिपाय। ...
वहाँ महाभारत्य भा, सवद परेउ हू हाय ॥ पृ० ९८. इस पद्य में खड्ग की चमक, तलवार की ठनाठन, हिन-हिन और हन-हन की शब्दावली का प्रयोग हुआ है । इसी से बहुत साम्य रखनेवाली शब्दावली में युद्ध में धनुष टंकार और खड्गों की खनखनाहट स्वयंभू के पउमचरिउ में देखी जा सकती है :
हण-हण-हणंकार महारउददु । छण-छण-छणंतु गुणपि-पछि-सद्द। कर-कर-करंजु कोयडं पवरु। धर-धर धरंतु णाराय-णियरु। खण-खण-खणंतु तिक्खग्ग खग्गु। हिल-हिल-हिलंतु हय चंच लग्गु। गुल-गुल-गुलंत गयवर विसालु । हणु-हणु भणतु हर वर विसालु ॥
पउमचरिउ, ६३.३. रसरतन में घमासान युद्ध के बाद युद्धस्थल का वोभत्स रस में वर्णन इस प्रकार उपस्थित किया गया है :
पिसाचन रच्छ रचें ज्योनार । सरब्बत ओन करें मनुहार ॥ करे तहाँ प्रेम पिसाच अहार । ....... ....... मरोरत मुंड नचावत चाड़। कंटकट दंत चचरोत हाड़॥ बचै इक फेरि रक्कत्त अघाइ । गिले हकलीय अछंग वहाइ॥
युद्धखंड, २६८-६९. चन्दायन में भी युद्धस्थल पर ऐसा ही वीभत्स रस दिखाई पड़ता है। युद्ध के बाद मृत सैनिकों को गृद्धादि पक्षी किस रुचि से भक्ष्य बनाते हैं :
गीहि नोता केतन हंकारा । कोत रसोई अगिन परजारा ॥ आज बांठ इतै खंड तारा । लोर बसायें करउं जेउनारा॥ नोता काल देस कर आवा । चील्ह के दर मांडो छावा ॥ सरग उड़त खबरहर खीनी । काल करोह भांत दस. कोनी ॥ सनां सियार पितरमूख आवा। रैन बास सब जात बुलावा ॥