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१४८ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
महरें काढ़ि तुखार बुलाने | इन्ह दस घरे पौर मंह आने ॥ हंस हंसोली भंवर सुहाये । हिना यक खिंगारे बहु आये ॥ उदिर संमुद भुई पाउ न धरिहैं । भाव गरब ते नाचत रहैं ॥ यह तुरंग तीन पा ठाढ़े । नीर हरियाह पखरिन्ह गाढ़े ॥
पृ० १४१.
रसरतन में घोड़े इस रूप में सामने आते हैं :
पलानें तहां तेज-ताजी तुरंगा । परै उच्च उच्छाल मानौ कुरंगा ॥ कथा सुलालं दुरंगा सुरंगा । खरे श्वेत पीतं तथा सावरंगा ॥ इराकी अरब्बी तुरक्की दवच्छी । ममोला अमोला लिये मोल लच्छी ॥ .. बजे धाव धावें सें पूंछ अच्छी । मनो उड्डहीं बांह बैठे सुपच्छी ॥ उभै कर्न ऊचे मह उच्च ग्रीवा । मनो उच्च उच्चैश्रवा सोम सीवां ॥ चढ़े सूर वंशी महा सूरवीरं । उलंघे मनो चंपि वाराधि नीरं ॥ सवै षड्ग धारी चितै चित्त मोहे । मनो चित्त औरेषि पेषंत सोहे ॥
पृ० १०३.
चन्दायन में राव रूपचन्द के हाथी किस प्रकार के थे, यह मौलाना दाऊद के शब्दों में देखिए :
ऊपरं बैसाये ॥
पखरे हस्त दांत बहिराये । धानुक लै बनखंड जैस चले अतिकारे । आने जानु मेघ अंधकारे ॥ चलन लाग जनु चर्लाइ पहारा । छांह परै जग भा अंधियारा ॥ करहि चोटहिं आंकुस लागे । बरु दस कोस सहस अग भागे ॥ जो कोर्पाह तो राइ संघाहिं । बन तरुवर जर मूर उपाहि ॥
सकर पाइ बानि उठ, उरै कांदो होइ । राउ रूपचंद कोपा, तेग न पारे कोई ॥ पृ० १३४.
सूरसेन की सेना के हाथियों का रसरतन में वर्णन :
चले मत्त मैंमत घूमंत मता । मनौ बदला स्याम माथै चलंता || बनी वग्ग रूप राजंत दंता । मनौ वग्ग आसाढ़ पातें उड़न्ता ॥ पीता सुढा ढक्कें । मनौ चंचला चौंध छायां झलक्क ॥ गिरी शृंग के कुंभ सिंदूर मंडे । घटा अग्र पातें मनौ भारतंडे ॥