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१४६ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
रसरतन के स्वयंवरखंड में भी चित्रशाला का वर्णन किया गया है : चित्रसाल चित्रित बहुरंगा । उपजतु निरषि सुषद सुष अंगा॥ विविध चित्र अनवन विधि साजे । जल थल जीव जंतु सब राजे॥ लिषी बहुत लीला करतारा । चित्र चारु दसऊं अवतारा ॥ बज विनोद बहु भांतन चीन्हा । राम चरित्र चार सब कीन्हा॥ सोरह सहस अष्ट पटरानी। चित्री इंद्र धरनि. इंद्रानी॥
नायक नाथ लिषे सुर ग्यानी। रुकमिन आदि आट पटरानी॥ रति रतिनाथ चित्र पुनि कीन्हा । ऊषा हित अनुरुध मनु लीन्हो ॥ चित्रित सकल प्रेम रस प्रीती। माधौ काम कंदला रीती॥ अग्नि मित्र मौरावत धाता । भरथरि प्रेम पिंगला राता ॥
स्वयंवरखंड, २३०-२३४ और आगे. __मंझनकृत मधुमालती में चित्रसारी का उल्लेख एकाधिक बार आया है परन्तु उसका वर्णन इस तरह का नहीं है। जैसे एक स्थान पर प्रेमा कहती है : चित्रसारि एक तहां संवारी । तहं खैलै हम जाहिं धमारी ॥ पृ० १६६. ___ दूसरे स्थान पर कमलवदनियों को जब भ्रमर तंग कर रहे थे तब वे चित्रसारी में भाग गईं :
दुहं कर बदन छपाएं धाई ते बर नारि । चित्रसारि भीतरगै पैसों बार पौरि दोन्ह टारि ॥ पृ० १७४. बारी महं चित्रसारी जहां । तुम्ह परभात गै बसहु तहां ॥ हम और वह मिलतहि मिलि जैहैं । खेल मिसुन चित्रसारी अहैं ।
पृ० २५१. इसी प्रकार के अन्य प्रसंग पृ० ४१४, ४१५, ४२० आदि पर देखे जा सकते हैं । शय्या अथवा कुसुम-शय्या : प्रायः प्रेमाख्यानकों में नायकनायिका के समागम का प्रसंग आता है वहीं उनकी सेज फूलों से सजी दिखाई जाती है। कुसुम-शय्या उस शय्या का नाम है जिस शय्या पर फूल बिछा दिए जाते हैं। हिन्दी का एक प्रचलित मुहावरा भी है 'फूलों की सेज' । रसरतन का एक उदाहरण :