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हिन्दी प्रेमाख्यानकों का शिल्प : १४५
पुनि सिंगार हाट धनि देसा । कइ सिंगार तहं बैठी बेसा ॥ ३८॥
लै लै बैठ फूल फुलहारी। पान अपूरब धरे संवारी॥
सोंधा सबै बैठु लै गांधी । बहुल कपूर खिरौरी बांधी ॥ ३९ ॥ चित्रशाला का वर्णन भी हिन्दी प्रेमाख्यानकों में अपने पूर्ववर्ती साहित्य के अनुरूप ही हुआ है । छिताईवार्ता की चित्रशाला की रचना
देखिए :
बावन बस्त मीली ( मिलों ) करि बान । . अति अनप आरसी समान ।
रची चित्रसालों चित लाइ।
देखत ही मन रहै लुभाइ ॥११२॥ मानिक चोक स मन मोहनी । रची अनूप चोर मीचनी॥
किए भौहरे अनु अनु भांति । तिन माहि मनो अंध्यारी राति ॥११३॥ बने हिंडोरे कंचन खंभ। मानहु उपजइ उकति सुयंभ ॥ करी अनूप अति खरी सिंगार। मानहु भरति को भरी सुनारि ॥११४॥
चकवा चकवी एकै डारि । जल कूकरी मटामरि यार ॥११५॥ कमल कमोदनि पुरयनि पान । झलमलाहि सरवर समान ॥११६॥
मच्छ कच्छ ते दोरघ घने । ते साद्रिष्ट चलकर बने। . सभा सरोवर दोसै तिसौ । हथनापुर पांडव को जिसौ ॥११७॥ जिनस जिनस मंदिर जिनसार । हेम जरित सोहइ सिजवारि ॥१२३॥
रसरतन में सूरसेन की चित्रसारी का वर्णन इस प्रकार किया गया है : लखि रहइ भूमि मृग पहुंभिपाल । अति रुचिर रुचितवर चित्रसाल ॥
राखिय सुगंध भरि करि बनाइ । अंगनह मध्यि सरवर सुभाइ ॥ .गुंजरत - भंग रसवास लोन । मृगवाल नाद स्वादहि अधीन ॥ परजंक मंड तहं चित्त चारि । परवार हेतु जनु अमर नारि ॥ इन हथ्थ पाइ इक हथ्थ चौरि । इक कर सुगंध गहि मुकुर औरि ॥ पचरंग पाट सीरक बिछाइ । वहि रूप ओप बरनी न जाइ ॥ बहु फूल सल सम धरि बनाइ । पटझीन झारि चादर चुनाइ॥ गिड़व जुगल दुहं और साज । सुर सरित सेज दोउ कल राज ॥ मलकति मुक्ति झालर अपार । चंदोव चंद जनु जलजतार ।
चंपावती० २२३-२२८.