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हिन्दी प्रेमाख्यानकों का शिल्प : १३९
परिचय कथाकाव्य के वस्तुवर्णन को देखकर ही लगाया जाता था। बाण का नाम इस प्रसंग में उल्लेखनीय है । परन्तु परवर्ती काल में वस्तुवर्णन कर्ता को वस्तुओं के ज्ञानाज्ञान की समस्या नहीं रही। यह एक कविसमय जैसी चीज़ या रूढ परिपाटी हो गई और इसकी एक पद्धति ही बन गई । तब वस्तुओं को जानकारी के लिए कवि ने श्रम और ज्ञान में रुचि रखना विशेष आयश्यक नहीं समझा । यही कारण है कि कथाकाव्यों में वस्तुवर्णन के नाम पर घिसी-पिटी सामग्री ही सामने आती है । जो हो, वस्तूवर्णन के अन्तर्गत किस वस्तु का, किस ढंग से वर्णन किया जाये यह भो निश्चित कर दिया गया। उन्हीं मान्यताओं के अनुसार वस्तुवर्णन रूढ हो गया। मैंने प्रबन्ध के प्रास्ताविक में हिन्दी प्रेमाख्यानकों के शिल्प को निर्दिष्ट करने के लिए एक कसौटी का उल्लेख किया है। उसी के अन्तर्गत वस्तुवर्णन-नगर, वन, बाग, गिरि, ताल, सरिता, हाट, अश्व, गज, आयुध, सिंहासन इत्यादि-का अपना स्थान है । सभी प्रेमाख्यानकों का वस्तूवर्णन तो इस स्थान पर करना मेरे लिए असंभव होगा। अतः हिन्दी-प्रेमाख्यानकों में वस्तुवर्णन के अन्तर्गत आनेवाले तत्वों का
आंशिक विवेचन करूंगा। ___ आचार्य जिनसेन ( ८वीं शताब्दी ) ने आदिपुराण में नगर-ग्रामों का सविस्तार वर्णन किया है । उन्होंने नगरों को खेटे, खर्वट, मडम्ब, पत्तन और द्रोणमुर्ख संज्ञाओं के अन्तर्गत रखा है। मानसार, समरांगण, मयमत, मानसोल्लास, हरिवंशपुराण, अग्नि, गरुड़ और मत्स्य पुराणों में इस संदर्भ में पिपुल सामग्री है। मानसार में नगर की परिभाषा करते हुए बताया गया है कि 'जिस स्थान पर क्रय-विक्रयादि वस्तु-व्यापार होते हों, अनेक जातियों के लोगों और कर्मकारों का जहाँ निवास हो और जहाँ पर सभी धर्मावलम्बियों के देवायतन हों उसे नगर कहते
१. आचार्य जिनसेन, आदिपुराण, १६. १६५-६८. २. 'सरिगिरिभ्यां संरुद्धं खेटमाहुर्मनीषिणः' -वही, १६. १७१. ३. 'केवलं गिरिसरु द्धं खर्वटं तत्प्रचक्षते' --वही.. ४. 'मडम्बमामनन्ति ज्ञाः पंचग्रामशतीवृतम्' -वही, १६. १७२. ५. 'पत्तनं तत्समुद्रान्ते यन्नौभिरवतीर्यते'। - वही. ६. 'भवेद् द्रोणमुखं नाम्ना निम्नगातटमाश्रितम्' -वही, १६. १७३.