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________________ हिन्दी प्रेमाख्यानकों का शिल्प : १२७ हिन्दी-जगत् में कथानक-रूढ़ियों के प्रथम प्रस्तोता हैं आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी । ऐतिहासिक चरितकाव्यों के प्रसंग में आचार्य जी ने लिखा है-'ऐतिहासिक चरित का लेखक संभावनाओं पर अधिक बल देता है । सम्भावनाओं पर बल देने का परिणाम यह हुआ कि हमारे देश के साहित्य में कथानक को गति और घुमाव देने के लिए कुछ ऐसे अभिप्राय दीर्घकाल से व्यवहृत होते आ रहे हैं जो बहुत थोड़ी दूर तक यथार्थ होते हैं और आगे चलकर कथानक-रूढ़ि में बदल जाते हैं ।'' कथानकरूढि के स्रोतों के रूप में लोक-साहित्य या लोककथाओं को स्वीकार किया जा सकता है । ब्लूमफील्ड, पेंजर, बेनिफी, टानो, वेबर, ब्राउन आदि विद्वान् ऐसे हैं जिन्होंने भारतीय कथानक-रूढ़ियों का विस्तृत विवेचन किया है । कथाभिप्रायों पर विशेष विचार हम अपभ्रंश कथाओं की कथानक रूढ़ियों का विश्लेषण करते समय अगले अध्याय में करेंगे। कथाभिप्राय विषय की दष्टि से घटनाप्रधान अथवा लोक विश्वासों पर आधारित और विचारप्रधान अथवा कवि-कल्पित दो प्रकार के होते हैं । इन्हीं से अनेकों उपभेद हो जाते हैं । __रासो की कथानकरूढ़ियों पर विचार करते समय आचार्य हजारीप्रसाद जी ने जिन कथाभिप्रायों का उल्लेख किया है वे इस प्रकार हैं : १. कहानी कहने वाला सुग्गा, स्वप्न में प्रिय का दर्शन, चित्र देखकर, भिक्षुओं आदि से सौन्दर्यवर्णन सुनकर किसी पर मोहित होना, २. मुनि ' का शाप, ३. रूप-परिवर्तन, ४. लिंग-परिवर्तन, ५. परकाय-प्रवेश, आकाशवाणी, ६. अभिज्ञान या सहदानी, ७. परिचारिका का राजा से प्रेम और अन्त में उसका राजकन्या और रानी की बहन के रूप में अभिज्ञान, ८. '. नायक का औदार्य, ९. षड्ऋतु और बारहमासा के माध्यम से. विरहवेदना, १०. हंस-कपोत आदि से संदेश भेजना, ११. घोड़े का आखेट के समय निर्जन वन में पहुँच जाना, मार्ग भूलना, मानसरोवर पर किसी सुन्दर स्त्री या उसकी मूर्ति का दिखाई देना, फिर प्रेम और प्रयत्न, १२. विजयवन में सुन्दरियों से साक्षात्कार, १३. युद्ध करके शत्रु से या मत्त हाथी के आक्रमण से या कापालिक की बलिवेदी से सुन्दर स्त्री का १. डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य का आदिकाल, पृ० ७४.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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