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हिन्दी प्रेमाख्यानकों का शिल्प : १२५
1. मुहम्मद साहब की प्रशंसा :
मूल मुहम्मद सभ जग साखा । विधि नौ लाख मटुक सिर राखा ॥ ओहि पटतर दोसर कोइ नाहीं । वह सरीर यह सभ परिछाहीं ॥ ऊंचे कहौं पुकारि कै जगत सुनै सभ कोई । परगट नाउं मुहम्मद गुप्त जो जानिय सोइ ॥ ८ ॥ चार यार का उल्लेख :
अब सुनु चहूं मींत के बाता । सत नियाउ सास्तर के दाता ॥ प्रथमहि अबाबकर परवानां । सत गुर बचन मंत जिय जाना ॥ दूजें उमर नियाउ के राजा। जेई सुत पितैं हना बिधि काजा ॥ तीजें ठाउं राउ उसमाना । जेई रे भेद बेद का जाना ॥ चौथें अली सिंघ बहु गुनी । दान खरग जेई साधी दुनी ॥ ९ ॥ शाह सलीम शाहेवक्त के वर्णन के बाद गुरु की स्तुति इस प्रकार है :
सेख बड़े जग बिधि पियारा । ज्ञान गरुअ औ रूप अपारा ॥ संवरि नाउं परसै जौ आवै । ज्ञान लाभ होइ पाप गंवावे ॥ गुरु दरसन दुख घोवन धनि धनि दिस्टि जो भाउ । जो गुरु सिक्ख दिस्टि प्रतिपालै सो चारिहुं जुग राउ ॥१४॥
इसके बाद पीर औलिया आदि की प्रशंसा के बाद नगरवर्णन से कथा प्रारम्भ होती है । इन उदाहरणों को देने का उद्देश्य सिर्फ इतना है कि इसी ढंग पर मिरगावतो, पद्मावत चित्रावली आदि सभी प्रेमाख्यानकों में कथानियोजन का ढंग रहा है ।
सभी कथाएँ अपने-अपने विषयानुकूल परिस्थितियों में ढले रहने पर भी एक ही क्रम से आगे बढ़ती हैं। प्रायः ही राजा या रानो अथवा दोनों निःसन्तान होने के कारण दुःखी रहते हैं । भगवद्भक्ति अथवा किसी महात्मा की कृपा पुत्ररत्न या कन्यारत्न की प्राप्ति होती है । पुत्रोत्पत्ति पर नाना ज्योतिषाचार्य जुटते हैं । पुत्र अत्यधिक भाग्यवान् होता है परन्तु विरह का दुःख उसके भाग्य में लिखा रहता है जो अपनी अवधि में समाप्त हो जायेगा आदि भविष्यवाणियाँ की जाती हैं । भविष्यवाणियां सच घटित होती हैं ।