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________________ १२४ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक जिहि कारन भव दधि मथ्यौ, अरु दुष सह्यो अपार । जप तप सो त्रिय पाइ कै, त्रिपित भये तिहि वार ॥ स्वयंवरखंड, ३२६. किन्तु रसरतन का कथाकार रुद्रट को परिभाषा में ही बंधा नहीं रहता। वह अन्त में अद्वैतदर्शन के आधार पर सृष्टि, जीव और मुक्ति का रहस्य समझाता है । इस पूरी कथा को एक आध्यात्मिक अर्थ दे देने का संकेत भी करता है। - सूफी प्रेमाख्यानकों में भी कथानियोजन की दृष्टि से कोई मौलिक अन्तर नहीं दिखाई पड़ता। यहाँ कतिपय उदाहरणों से बात स्पष्ट हो जायेगी। चन्दायन में काव्य के आरम्भ में सृष्टिकर्ता की स्तुति की गई है :' . पहिले गावउं सिरजनहारा। जिन सिरजा इह देवस बयारा ॥१॥ सिरजसि धरती और अकासू। सिरजसि मेरु मंदर कबिलासू ॥२॥ इसके बाद पैगम्बर को स्तुति इस प्रकार की है : पुरुख एक सिरजसि उजियारा । नाँउ मुहम्मद जगत पियारा ॥१॥ सहि लगि सबै पिरिथिमी सिरी। औ तिह. नांउ मौनदी फिरी ॥२॥ चार यार का उल्लेख अबाबकर उमर उसमान, अली सिंघ ये चारि ॥६॥ जे निदतु विज तिस, तुरहि झाले मारि ॥७॥ शाहेवक्त फिरोजशाह को सराहना : साहि फिरोज दिल्ली बड़ राजा। छात पाट औ टोपी छाजा ॥१॥ एक पण्डित औ है पडिब्राहा। दान अपुरिस सराहै काहा ॥२॥ गुरु-प्रशंसा : सेख जैनदी हों पथिलावा। धरम पन्थ जिह पाप गंवावा ॥१॥ पाप दीन्ह मैं गांग बहाई । धरम नाव हौं लोन्ह चढ़ाई ॥२॥ तदनन्तर नगरवर्णन से कथा आरम्भ होती है। इसी तरह मंझनकृत मधुमालती में भी प्रथम ईश्वर की वन्दना है-१-७ तक। . १-४. चन्दायन, सं०-डा० परमेश्वरीलाल गुप्त, पृ० ८१-८२. .
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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