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हिन्दी प्रेमाख्यानकों का शिल्प : १२३ मेल से-यह लेखक के ऊपर निर्भर है। 'दंतकथा' से मतलब काल्पनिक कथा से होता है । पुहकर कहते हैं :
पहले दंत कथा हम सुनी। तिहि पर छंद वंद हम गुनी। अवनन सुनी कथा हम थोरी। कछुवक आप उकति ते जोरी॥
-आदिखंड, ८८. रुद्रट की परिभाषा के अनुसार 'रसरतन' कसौटी पर खरा उतरता है । आदि में पुहकर ने देवता के त्रिरूप की वंदना की है :
अगुन रूप निर्गुन निरूप बहुगुन विस्तारन। अविनासी अवगति अनादि अप अटक निबारन ॥ घट घट प्रगट प्रसिद्ध गुप्त निरलेख निरंजन ।
तुम त्रिरूप तुम त्रिगुन तुमहि त्रैपुर अनुरंजन ॥ गणेश आदि देवताओं की वंदना के बाद इन्होंने अपने पूर्ववर्ती कवियों का स्मरण किया है :
प्रथम सेष अरु व्यासूदेव सुषदेवहं पायौ। बालमीक श्रीहर्ष कालिदासहं गुन गायौ ॥
माघ माघ दिन जेमि वान जयदेव सुदंडिय । .. . भानदत्त उदयेन चंद वरदाइक चंडिय॥
.. य काव्य सरस विद्या निपुन वाकवानि कंठह धरन। . . . कविराज सकल गुन गन तिलक सुकवि पोहकर वंदत चरन॥
-आदिखण्ड, १२. इसके बाद कथा के शीर्षक का नामकरण करके छत्रसिंहासन का वर्णन किया है । इसमें जहाँगीर की प्रशस्ति है। तदुपरान्त कविकुल का सविस्तार वर्णन है। तब कथाप्रसंग के उल्लेख के साथ कवि कथानक की ओर अग्रसर हआ है। कथा में प्रेम, अपहरण, विवाह, बिछोह, बारहमासा आदि की रचना उल्लेखनीय ढंग से हुई है। कन्यालाभ को पूहकर स्वयं फल के रूप में स्वीकार करते हैं :
१-२. रसरतन, सं०-डा० शिवप्रसाद सिंह, पृ० ५-६.