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हिन्दी प्रेमाख्यानकों का शिल्प : १२१
नववधू
प्राप्ति ही माना गया । ये ग्रन्थ तब प्रेमाख्यानकों की साहित्यिक कोटि में कैसे रखे जा सकते हैं ? इस प्रसंग में इतना कहना पर्याप्त होगा कि जैनाचार्यों ने, सुन्दर अलंकारों से विभूषित, सुस्पष्ट मधुरालाप और भावों से नितान्त मनोहर तथा अनुरागवश स्वयं ही शय्या पर उपस्थित की तरह सुगम, सुश्राव्य, मधुर, सुन्दर शब्दावली से गुम्फित, कौतूहलयुक्त, सरस और आनन्दानुभूति उत्पन्न करने वाली कथा होती है', यह परिभाषा दी है । इन सब मूल्यों के रहते उद्देश्य में यदि प्रायः सभी एक ही तरह के उद्देश्यों को लेकर रचनाओं का अन्त करने की पर म्पराओं में बँधे हैं तो भी हमारे साहित्यिक स्तर में उनसे कोई बाधा नहीं आती । द्रष्टव्य यह है कि अपभ्रंश की उद्देश्य वाली परम्परा से हिन्दी के सभी प्रेमाख्यान अछूते रहे ऐसी बात भी नहीं है । कथातत्त्वों के निरूपणोपरान्त कथानियोजन पर एक दृष्टिपात आवश्यक है ।
चित्रकार किसी चित्र को तूलिका आदि लेकर अकस्मात् नहीं रच डालता, अपितु चित्र का खाका प्रथम मस्तिष्क में और तब चित्रपटल पर उकेरता है । भवनशिल्पी भी भवन निर्माण के पूर्व भवन का मानचित्र बनाता है । इसी प्रकार कथाकार कथानियोजन करता है । यहाँ यह विचार करना अपेक्षित नहीं कि नियोजन की क्या प्रक्रिया होती है । प्रक्रिया तो कथाकार के ऊपर निर्भर करती है । वह चाहे कल्पित कथानक गंढ़कर कथा को रूप दे, चाहे तो ऐतिहासिक घटना को कथा का आधार बनाये अथवा लोक-वार्ताओं को कथा में ढाल दे और वह 'सभी से कुछ न कुछ ग्रहणकर एक नया आयोजन प्रस्तुत करे । तात्पर्य यह कि कथाकार को कथा के लिखने के पूर्व उसका नियोजन करना आवश्यक है । चेखब का कथन है कि 'यदि कोई कलाकार मुझसे बिना किसी नियोजन के कहानी लिखने की शेखी के साथ केवल प्रेरणा से
१. सालंकारा सुहया ललिय-पया मउय - मंजु-संलावा । सहियाण देइ हरिसं उब्वूढा णव वहू चेव ॥ सुकइ - कहा - हय- हियमाण तुम्ह जइ विहुण लग्गए एसा । पोढा-राओ तहविहु कुणइ विसेसं णव- बहुव्व ॥
- कुवलयमाला, पृ० ४.