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१२० : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
भी उसका होना आवश्यक है । कथोपकथन से ही कथा में कुतूहल तत्त्व का समावेश होता है ।
वातावरण देश, काल और परिस्थिति के अनुकूल होना चाहिए । पात्रों और घटनाओं की वातावरण के साथ मेल खाना चाहिए | क्योंकि वातावरण का सीधा सम्बन्ध पात्रों, घटनाओं और परिस्थितियों से ही होता है । वातावरण की कल्पना दो प्रकार की कीगई है : १. बाह्य, २. आभ्यन्तर । बाह्य वातावरण से तात्पर्य सामाजिक बाह्य स्थितियों है | आभ्यन्तर वातावरण मानसिक विचारधारा का बोध कराता है । यों दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं।
कथा-तत्त्वों में भाषा-शैली को सर्वाधिक महत्त्व देना चाहिए । कथा पाठक को तभी आकर्षित कर सकती है जब वह बोधगम्य हो । न तो इतनी दुरूह और नीरस हो कि पाठक उसे देखकर ही छोड़ दे और न इतनी चटकीली हो हो । भाषा बोधगम्य, प्रवाहपूर्ण और युगानुरूप होगी तभी वह पाठक को आकर्षित कर सकेगी। भाषा स्वाभाविक हो और पाठक को कुतूहल वृत्ति को जाग्रत करने की क्षमता रखती हो यही उसको कथागत विशेषता होगी । रसरतन की भाषा में यह गुण है ।
अंतिम कथा का तत्त्व उद्देश्य है । ऐसा लोकव्यवहार में देखा जाता है कि निरुद्देश्य कोई कार्य नहीं किया जाता । तब कथाएँ क्यों निरुद्देश्य लिखी जाने लगीं ? " सकल शृङ्गारों से युक्त कन्यालाभ ही कथा का उद्देश्य है" यह आचार्य रुद्रट का मत है किन्तु हिन्दी प्रेमाख्यानकों में इसे ही एकमात्र उद्देश्य नहीं माना गया है । कन्यालाभ मनुष्य के पुरुषार्थों में सिर्फ काम के साथ सम्बद्ध है । भारतीय प्रेमाख्यानकों में अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की सम्यक् सिद्धि पर भी ध्यान दिया गया है । कथा में रस के लिए कन्या प्रसंग पर जोर अवश्य ही ज्यादा दिया जाता है । अपभ्रंश - प्राकृत प्रेमाख्यानकों में भी कन्यालाभ से ही मात्र उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती । यहाँ दोहरी स्थिति उपस्थित हो जाती है - या यों कहें कि कन्यालाभ तो होता ही है, धर्मलाभ भी होता है । इसका मूलभूत कारण यह है कि प्राकृत अपभ्रंश के प्रेमाख्यानक हों अथवा अन्य ग्रन्थ, प्रायः ही जैनों द्वारा जैन सिद्धान्तों के प्रतिपादन के लिए रचे गये । अतः कथानक चाहे जिस ढंग के रचे गये, वहाँ व्यक्ति का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष