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हिन्दो प्रेमाख्यानकों का शिल्प : ११९
नाओं के कथा-संगठन में अद्भुत कौशल का परिचय दिया है। कथा की सफलता कथानक के प्रयोग या उसके विकास पर ही निर्भर करती है । कथावस्तू की रोचकता के लिए आवश्यक है कि उसमें प्रयुक्त घटनाएँ अस्वाभाविक न हों, इसीलिए कथानक में घटनाओं के स्वाभाविक विकास और प्रवाह का विशेष ध्यान रखा जाता है । प्रायः कथानक दो प्रकार के होते हैं : (१) साधारण अथवा स्थूल कथानक, (२) जटिल अथवा सूक्ष्म कथानक ।
साधारण या स्थल कथानक में चरित्र-चित्रण पर लेखक का ध्यान स्वभावतः नहीं पहुँच पाता, वह घटनाओं की परिधि में ही घिर जाता है। सूक्ष्म कथानकों में चरित्रोद्घाटन और मनोविश्लेषण के लिए पर्याप्त स्थान रहता है । वहां वातावरण के सर्जन में घटनाओं को भरा नहीं जाता । कथावस्तु में कथानक के विकास की पाँच स्थितियाँ होती हैंशीर्षक, प्रारम्भ, आरोह, मध्यबिन्दु और अन्त । कथा के शीर्षक का चुनाव करना भी एक कला है। कुछ कथाओं के शोर्षक उनके प्रधान पात्रों अथवा नायकों के नाम से मिलते हैं और कुछ प्रधान पात्राओं के
नाम पर । अपभ्रंश में अधिकांश कथाएं नायकों के नाम से ही हैं । हिन्दी • प्रेमाख्यानकों में, विशेषकर सूफ़ियों में, नायिकाओं के नाम पर ही कथाओं
के शीर्षक रखे गए, जैसे -पद्मावती, मृगावतो, मधुमालती, कनकावली, पुहुपावती, रतनावली, कंवलावती आदि । लगता है यह भी कालगत रूढि हो चली आई थी। कुछ कथाओं के शीर्षक विषय के आधार पर भी रखे जाते हैं।
दूसरा कथा-तत्त्व पात्रों के निर्माण का है। कथावस्तु को सजीव बनाने के लिए पात्रों का होना नितान्त आवश्यक है। पात्रों के निर्माण में कथाकारों को स्वाभाविक, सजीव और कथा के अनुकूल पात्रों का चुनाव करना होता है। विशिष्ट कथाकार की प्रमुख विशेषता यही है कि वह कथा में ऐसे जीवन्त पात्रों का चुनाव करे कि वे परिस्थितियों के अनुकूल हों। ___ पात्रों के निर्माण का प्रश्न जहां समाप्त हुआ वहीं कथोपकथन का प्रश्न प्रारम्भ होता है । घटनाक्रम को आगे बढ़ाने के लिए तो कथोपकथन का होना आवश्यक है ही, कथा में रोचकता और प्रभावना लाने के लिए