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हिन्दी प्रेमाख्यानकों का शिल्प : ११३
उक्त आचार्यों ने विस्तृत चर्चा की है । काव्य के मूल में मम्मट ने तीन कारणों का उल्लेख किया है - १. शक्ति या प्रतिभा, २. लोक, शास्त्र तथा काव्य आदि के पर्यालोचन से उत्पन्न निपुणता, ३. काव्य को जानने वाले की शिक्षा के अनुसार अभ्यास । इन्हीं तीन हेतुओं से काव्य का उद्भव होता है । प्राय: काव्य के हेतुओं में आचार्यों के मतों में अधिक भेद नहीं है ।
काव्य के रूपों का वर्गीकरण प्रथमतः अभिव्यक्ति के माध्यम से किया गया। भामह और दण्डो के अनुसार संस्कृत काव्य, प्राकृत काव्य और अपभ्रंश काव्य के भेद से तीन काव्यरूप हैं । साहित्यदर्पणकार ने इस ओर ध्यान देकर काव्यरूपों का दृश्य और श्रव्यकाव्य के भेदों में विभाजन किया । काव्य की दृश्यता और श्रव्यता के आधार पर ही यह वर्गीकरण किया गया है । 'जो चाक्षुष हो, जिसे देख सकें वह दृश्य; जो सुना जा सके, जो कानों का विषय हो वह श्रव्य काव्य कहलाता है । इसका विशद विवेचन साहित्यदर्पण के षष्ठ परिच्छेद में देखा जा सकता है । दण्डी
काव्यों को संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मिश्र रूप में स्वीकार किया । रुद्रट ने संस्कृत, प्राकृत, मागध, पिशाच, शूरसेन और अपभ्रंश को काव्य का रूप माना । शास्त्रों के आधार पर काव्य के रूपों का विकासक्रम उक्त प्रकार से मिलता है । परन्तु काव्यरूपों में भी परिवर्तन होता रहा है । क्योंकि 'काव्यरूपों का निर्माण, उनके उद्भव और विकास की प्रक्रिया देशकाल की सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों से परिचालित होती हैं । भाषा और कवि की कारीगरी पर भी इन परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता
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है ।'' संस्कृत के आचार्यों ने जिस काव्यरूप की चर्चा की है वह संस्कृत काव्यों को देखकर | मध्यकाल में विदेशी जातियों के सम्पर्क और लोक"भाषा के उदय के कारण लोकजीवन से सम्पृक्त बहुत से काव्यरूप सामने आये । हिन्दी के काव्यरूप इसी सांस्कृतिक परस्परावलंबन की देन हैं ।
१. शक्तिनिपुणता लोकशास्त्र काव्याद्यवेक्षणात् ।
काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास. इति दुद्भवे ॥
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- काव्यप्रकाश, १, ३.
२. दृश्यश्रव्यत्वभेदेन पुनः काव्यं द्विधा मतम् ।
दृश्यं तत्राभिनेयं तद्रूपारोपात्तु रूपकम् ॥ - साहित्यदर्पण, ६.१.
३. डा० शिवप्रसाद सिंह, सूरपूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य, पृ० ३१४.
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