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________________ हिन्दी प्रेमाख्यानकों का शिल्प : १११ उसकी अभिव्यक्ति कराने तथा उसके अस्तित्व का स्पष्ट बोध कराने में समर्थ हो। साहित्यशास्त्र के विभिन्न आचायों ने काव्य के लक्षणों पर अपनाअपना मत प्रकट किया है। आचार्य भामह शब्द और अर्थ के सहभाव को काव्य मानते हैं, जो कि गद्य-पद्य के भेद से दो प्रकार का होता है। दण्डी ने काव्य के लक्षण के विषय में पूर्वाचार्यों का स्मरण करते हए लिखा है कि प्रजाजनों की व्युत्पत्ति को ध्यान में रखकर विद्वानों ने विचित्र मार्गों से युक्त काव्यबाणी-रचना के प्रकारों का विवरण दिया है, जिसमें उन्होंने काव्य के शरीर तथा उसके अलंकारों का वर्णन किया है। इस अर्थ से युक्त पदावली ही काव्य का शरीर है । भामह और दण्डी ने काव्य के शरीर का आकार ही प्रस्तुत किया था परन्तु इनके बाद के आचार्य वामन ने उसमें आत्मतत्त्व को स्थापना भी कर दी । इन्होंने कहा कि रीति काव्य की आत्मा है-रोतिरात्मा काव्यस्य । ध्वनिकार आनन्दवर्धन ने ध्वनि को काव्य की आत्मा मानकर काव्य का लक्षण किया। जिस काव्य के शरीर-आत्मा आदि का जो रूपक आचार्यों ने प्रस्तुत किया था उसे राजशेखर ने स्पष्टरूप में 'काव्यपुरुष' का आकार प्रदान करके उसका वर्णन इस प्रकार किया-'शब्द-अर्थ इस पुरुष का शरीर है, संस्कृत मुख है, प्राकृत भुजा है, अपभ्रंश जंघा है, पैशाची पाद है, उरस्थल मिश्र [भाषा] १. वही.. २: भामह, काव्यालंकार, १. १६. ३. दण्डी, काव्यादर्श, १. ९-१०. ___ अतः प्रजानां व्युत्पत्तिमभिसन्धाय सूरयः । ...वाचां विचित्रमार्गाणां निबबन्धुः क्रियाविधिम् ॥ तैः शरीरं काव्यानामलंकाराश्च दर्शिताः । शरीरं तावदिष्टार्थ-व्यवच्छिन्ना पदावली ॥ ४. काव्यालंकार, १. १. ५. काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति बुधैर्यः समाम्नातपूर्वः, तस्याभावं जगदुरपरे भातमाहुस्तमन्ये । के चिद्वाचां स्थितमविषये तत्त्वमूचुस्तदीयं । तेन ब्रूमः सहृदयमन: प्रीतये तत्स्वरूपम् ।।-ध्वन्यालोक, १. १.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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