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________________ ११० : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक जिसे मध्यकालीन हिन्दी आख्यानकाव्यों का सही शिल्प कहेंगे, पर अध्ययन की दृष्टि से इन्हें अलग-अलग मानकर चलना ही उचित होगा। शिल्प के दष्टिकोण से हिन्दी-प्रेमाख्यानकों को मोटे तौर पर दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है : १. भारतीय, २. अभारतीय अथवा सफी । सूफी और हिन्दू दोनों ही प्रकार के प्रेमाख्यानक पौराणिक शैली. चरितशैली और रोमांचक शैली में लिखे गये । फारसी के प्रभाव से सूफ़ी काव्यों की मसनवी शैली कुछ दष्टियों से भारतीय प्रेमकाव्यों की शैली से भिन्न जरूर है, पर अपने को कथा और चरित्र कहने वाले हिन्दी के प्रायः सभी प्रबन्धकाव्य सीधे अपभ्रंश के चरितकाव्यों को परम्परा में आते हैं । अपभ्रंश के चरितकाव्यों की प्रायः सभी विशेषताएं इच में भी उसी प्रकार दिखलाई पड़ती हैं। सूफी और हिन्दू परम्पराओं में रचित प्रेमाख्यानकों का सविस्तार विवरण दूसरे अध्याय में दिया गया है । अत:: उनका नामोल्लेख आवश्यक नहीं है। आगे शिल्प के अन्तर्गत आने वाले सभी तत्त्वों पर विचार करते समय कथानकों को शिल्प-शैली का उल्लेख किया जायेगा। मुख्य रूप से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए। - शिल्प और काव्यरूप का घनिष्ठ सम्बन्ध है। शिल्प में भाव और अभिव्यक्ति के प्रकार दोनों अन्तर्भूत होते हैं । काव्य किसी अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र होता है। प्रत्येक अनुभूति की अभिव्यक्ति काव्य नहीं होतो। किसी भी काव्य की अनुभूति के स्फुरण के साथ ही काव्य-रूप का भी उद्भव होता है। काव्य केवल शब्दों, वाक्यों और छन्दों में हो.नहीं, काव्यरूपों में भी बंधकर प्रकट होता है। काव्यरूप के साथ काव्य का निजी व्यक्तित्व खड़ा होता है। रूप और पदार्थ दोनों ही सापेक्ष शब्द हैं। आकार या रूप के बिना वस्तु की और वस्तु के आधार के बिना आकार की कल्पना नहीं हो सकती। अशरीरी वस्तुओं के भी रूप होते हैं, जो केवल बोधगम्य हैं। अरस्तू ने रूप [फार्म] को परिभाषा देते हुए लिखा है कि कला के क्षेत्र में इस रूप या फार्म का अर्थ बाहरी आकार-प्रकार नहीं है बल्कि रूप में वह सब कुछ शामिल है जो किसी वस्तु को स्पष्ट करने, १. डा० शम्भूनाथ सिंह, हिन्दी महाकाव्यों का स्वरूप-विकास, पृ० १९७. २. डा० सत्येन्द्र, हिन्दी काव्यरूपों का अध्ययन, भूमिका, पृ० ६: ३. डा० शिवप्रसाद सिंह, सूरपूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य, पृ० ३१३.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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