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१०८ : अपभ्रंश कथाकाव्य एवं हिन्दी प्रेमाख्यानक
पाश्चात्य मतों के साथ उनकी तुलना कर सकें । उपर्युक्त रीतियाँ शैलियां ही हैं । उनका प्रयोग कथा, आख्यायिका और महाकाव्यों में होता था । परन्तु द्रष्टव्य है कि शैली शिल्प नहीं क्योंकि शिल्प में भाव और रचनाप्रक्रिया दोनों का समावेश है । वाल्टर रेले के अनुसार साहित्य का कार्य द्विविध है— अर्थ के लिए शब्द ढूंढ़ना और शब्द के लिए अर्थ ढूंढना ।' प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शैली ( स्टाइल इज़ दी मेन हिमसेल्फ) होती है तथापि व्यवस्था की दृष्टि से उनका श्रेणी - निबन्धन भी होता ही रहा है ।
महाकाव्य, खण्डकाव्य, कथा, आख्यानक, कहानी, नाटक, निबन्ध, पत्र और आत्मकथा आदि विभिन्न विधाओं की अपनी-अपनी विवेच्य शैलियां होती हैं । ये शैलियां अनेक रूपों में प्रचलित हैं। पं० परंशुराम चतुर्वेदी ने शैलियों को रूपशैली और भावशैली इन दो भेदों में विभक्त किया है | रूपशैली के अन्तर्गत उन्होंने जिन शैलियों का निर्देश किया हैं' इस प्रकार हैं :
१. वर्णन : सूक्ष्म और स्थूल के भेद से व्यक्ति, स्थान, वस्तु, दृश्य और अवसर का, २. इतिवृत्त या कथन : (क) कथा के रूप में, (ख) बच्चों को समझाई जाने वाली कहानियों के रूप में, (ग) वार्ता के रूप में, ३. वर्णन और कथन ( इतिवृत्त) मिश्रित, ४. कविता : (क) मुक्तक, (ख) प्रगीत (ग) उक्तिबन्ध, (घ) वर्णनात्मक कविता, ५ . गीत, ६. पद्य प्रबन्ध, ७. गद्यप्रबन्ध, ८. पत्र, ९. समीक्षा, १० दिनचर्या, ११. यात्रा, १२. निमन्त्रण-पत्र, १३. आवेदन-पत्र, १४ सूचना, १५. अभिनन्दन, १६. अभ्यर्थना, १७. समाचार, १८. विज्ञापन १९. निबन्ध : (क) समीक्षात्मक, (ख विचारत्मक, (ग) विवेचनात्मक, (घ) तर्कपूर्ण अध्ययनात्मक, (ङ) गवेषणात्मक, (च) भावात्मक, २०. संवाद, २१. स्वगत, २२. नाटक : (क) एकांगी, (ख) अनेकांगी, (ग) भृत्यनाटक, (घ) श्रव्यनाटक, २३. गद्यकाव्य, २४. भूमिका या प्रस्तावना, २५ संक्षेपीकरण, २६. लेख-संपादन, २७. व्याख्या, २८. टोका, २९. आत्मकथा, ३०. परिचय, ३१. जीवनचरित, ३२. रेखाचित्र, ३३. श्रव्य- व्याख्या, ३४. भविष्यवाणी, ३५. नाटकी आत्म- परिचय |
1.
To find words for a meaning and to find a meaning for words.-Style, p. 63.