SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिन्दी प्रेमाख्यानकों का शिल्प : १०७ गौडी वह रीति है जिसे ओज गुण के अभिव्यंजक वर्गों से पूर्ण, समासप्रचुर, उद्भट रचना कहा गया है। जिसे माधुर्य और ओज के अभिव्यंजक वर्गों को छोड़कर अन्य अवशिष्ट वर्णों अर्थात् प्रसाद के अभिव्यंजक वर्णों से ऐसी पद-रचना कहा गया है जिसमें पांच या छः पदों के समासों से बड़े समासों का प्रयोग नहीं हुआ करता, वह पांचाली रीति है।'२ भोजराज ने पांचालो रोति के विषय में लिखा है कि 'पांचाली रीति वह है जिसमें पांच या छ: पदों से अधिक पद वाले समास प्रयुक्त नहीं किये जाते, जिसमें ओज और कान्ति के गुण विराजमान रहा करते हैं और जो माधुर्य के अभिव्यंजक किंवा कोमल वर्गों से पूर्ण पद-रचना हुआ करती है।'३ लाटी वह रीति है जिसमें वैदर्भी और पांचाली दोनों को विशेषताएं अन्तभंत हों। इस प्रकार चार प्रकार की रीतियों को व्याख्या साहित्यदर्पणकार ने की है । कतिपय काव्याचार्यों ने चारों प्रकार की रीतियों का संक्षिप्त स्वरूप बताते हुए लिखा है कि 'वैदर्भी रीति का अभिप्राय 'मधुरबन्ध', गौडी रीति का अभिप्राय 'उद्धतबन्ध पांचाली रीति का अभिप्राय 'मिश्रबन्ध' और लाटो रीति का अभिप्राय 'मृदुबन्ध' से है। शिल्प और शैली के प्रसंग में मार्ग, वृत्ति, रीति और संघटना आदि को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ प्रस्तुत करने का मेरा उद्देश्य मात्र इतना रहा है कि हम भारतीय साहित्यशास्त्र में शिल्प-शैली आदि के बारे में प्रचलित धारणाओं का आकलन कर सकें और शिल्प के बारे में प्रचलित १. ओजःप्रकाशकवणैर्बन्ध आडम्बरः पुनः । समासबहुला गौडी.........."-साहित्यदर्पण, ९. ३-४. · २. ......."वर्णः शेषैः पुनद्वयोः । समस्तपंचषपदो बन्धः पांचालिका मता ॥-वही, ९. ४. ३. समस्तपंचषपदामोजः कान्तिसमन्विताम् । मधुरां सुकुमारां छ पांचाली कवयो विदुः ॥-वही, टीका. ४. लाटी तु रीतिर्वैदर्भीपाञ्चाल्योरन्तरे स्थिता। वही, ९. ५. ५. गौडी डम्बरबद्धा स्याद्वैदर्भी ललितक्रमा। पांचाली मिश्र भावेन लाटी तु मृदुभिः पदैः ॥ -वही, पृ० ६६२ से उद्धृत.
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy