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हिन्दी प्रेमाख्यानकों का शिल्प : ९९
विषयवस्तु लगभग एक ही रही है। इसका कारण यह रहा है कि जैनों का जितना भी कथा-साहित्य है-चाहे वह प्राकृत, अपभ्रंश या संस्कृत में हो-कहीं न कहीं उनके तिरसठ शलाका पुरुषों के जीवन-चरितों अथवा जैनधर्म के प्रतिपादन से सम्बधित विचारों से जुड़ा हुआ रहता है । उनके विषयों में वैभिन्य रहने पर भी उद्देश्यों में साम्य देखा जाता है । अतएव प्राकृत-अपभ्रंश कथा-साहित्य के स्थापत्य में कोई विशेष मौलिक अन्तर का न पाया जाना स्वाभाविक है । डा० नेमिचन्द्र जी ने प्राकृत कथासाहित्य के जिन स्थापत्यों का उल्लेख किया है उनके मात्र नाम देना यहाँ संगत होगा : १. वत्ता-श्रोतारूप कथा-प्रणाली, २. पूर्वदीप्तिप्रणाली, ३. काल-मिश्रण, ४. कथोत्थ-प्ररोह-शिल्प, ५. सोद्देश्यता, ६ अन्यापदेशिकता, ७. राजप्रासाद-स्थापत्य, ८. रूपरेखा की मुक्तता, ९. वर्णन-क्षमता, १०. मंडन-शिल्प, ११. भोगायतन-स्थापत्य, १२. प्ररोचन-शिल्प, १३. उपचारवक्रता, १४. एतिह्य-आभास-परिकल्पना, १५. रोमांस-योजना, १६. सिद्ध प्रतीकों का प्रयोग और नये प्रतीकों का निर्माण, १७. प्रतीकों की उपयोगिता और वर्गीकरण, १८. कुतूहल की योजना, १९. औपन्यासिकता, २०. वृत्तिविवेचन, २१. पात्रबहुलता, . २२. औचित्य-योजना और स्थानीय-विशेषता, २३. चतुर्भुजो स्वस्तिक
सन्निवेश, २४. उदात्तीकरण, २५. सामरस्य-सृष्टि और प्रेषणीयता, २६.. भाग्य और संयोग का नियोजन, २७. परामनोवैज्ञानिक शिल्प, .२८. अलौकिक तत्त्वों की योजना, २९. मध्यमौलिकता या अवांतरमौलिकता।
उक्त विवेचन से इतना तो स्पष्ट है कि कुछ लोग शिल्प को बहुत व्यापकता और विस्तार देना चाहते हैं। वास्तव में शिल्प के सम्बन्ध में जल्दी निर्णय लेना खतरे से खाली नहीं। एलन टेट ने तो यहाँ तक कहा है कि उपन्यासकार अपने उपन्यास के विषय और उसकी रचना (स्ट्रक्चर ) को पाठक के सामने इस तरह मिले-जले रूप में रखता है कि आलोचक उसके मुख्य-गौणरूपता का परिज्ञान कदापि नहीं पा सकता।
१. वही, पृ० १२३-१४६. 2. The novelist keeps before him constantly the structure
and substance of his fiction as a whole to a degree to which