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________________ हिन्दी प्रेमाख्यानकों का शिल्प : ९७ नहीं पा सकेगा ।" जान वेन का यह कथन पूर्णतः सत्य प्रतीत होता है । हिन्दी प्रेमाख्यानकों के अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि पूर्ववर्ती अपभ्रंशादि में रचित प्रेम काव्यों से हिन्दी के प्रेमाख्यानक ने शिल्प-शैली और ढंग में बहुत कुछ लिया है। इस सन्दर्भ में भाषा, काल और रचनाकार की रुचि का प्रभाव तो स्वीकार करना ही होगा । स्पष्टता यों कहे कि हिन्दी - प्रेमाख्यान के शिल्प पर अपभ्रंश कथाकाव्यों का प्रभाव अवश्य पड़ा परन्तु वे हू-बहू उन्हीं की नकल नहीं हैं । शिल्प शब्द के लिए शिथिल ढंग से कौशल, स्थापत्य, तकनीक, ढंग, रीति, शैली, विधान, विषय और आकृति ( कण्टेण्ट्स एण्ड फार्म्स ) आदि शब्द भी प्रयुक्त किये जाते हैं । विचारणीय यह है कि शिल्प शब्द के प्रचलित अर्थ क्या हैं? किसी भी कथा, कहानी, नाटक या उपन्यास को श्रेष्ठतम करार देने में उसका प्रभावोत्पादक शिल्प ही मुख्य होता है । उपन्यासों के शिल्प-विधान पर विचार प्रकट करते हुए मेण्डिलो लिखते हैं कि जितने जीवंत उपन्यास हैं उतनी ही तकनीकें हैं । वास्तव में किसी को उपन्यास की तकनीक की अपेक्षा उपन्यासों की तकनीकों पर चर्चा करनी चाहिये। असल में शिल्प को सब कुछ मानने वालों की संख्या कुछ कम नहीं है। मार्क शोदर का कथन है कि जब हम शिल्प की चर्चा करते हैं तब हम लगभग प्रत्येक वस्तु ( रचना ) की चर्चा करते हैं । इसी प्रत्येक वस्तु में रचनाका दृष्टिकोण भी सम्मिलित है और वह शिल्पविधि में जुड़कर उसे व्यापक बनाता है । 'औपन्यासिक गठन में • 1. If he has something to say that has not been said before, it is very unlikely that he will find, ready for use, exactly the right form and content in step.-John Wain, Essays on Literature & Ideas, p. 3. 2. There are thus as many techniques as there are living novels. Indeed one should not talk of the technique of the novel, but of techniques of novels.-Time and the Novel, p. 234-235. 3. When we speak of technique, then, we speak of nearly everything.-Technique as Discovery, Forms of Modern Fiction, p. 9. ७
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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