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________________ हिन्दी प्रेमाख्यानकों का शिल्प : ९५ एक साधारण-सा उदाहरण लेकर इस कथन को स्पष्ट किया जा सकता है - बढ़ई जब एक कुर्सी बनाता है तब उसके मस्तिष्क में कुर्सी का पूर्व - निर्धारित ढांचा ( स्ट्रक्चर ) रहता है और उसी के अनुसार वह काष्ठ की पट्टियों को छीलकर उन्हें ढाँचे के अनुसार जोड़ देता है । निर्मित कुर्सी के आकार में निर्माता ने जो शिल्प गढ़ा है उसे कुर्सी से अलग नहीं किया जा सकता । हाँ, कुर्सी के ढाँचे को अलबत्ता अलगाया जा सकता है। ठीक इसी प्रकार रचनाकार, कलाकार और कथाकार अपनी-अपनी अनुभूतियों से अपनी कृतियों को तो रचना करता ही है, शिल्प और विधा की भी सर्जना करता है । टाल्स्टाय का कथन है - ' प्रत्येक महान् कलाकार आवश्यक रूप से अपनी विधा ( फार्म ) का भी निर्माता होता है ।" 'फार्म' अथवा विधा का स्वरूप कैसा है ? यह एक अलग प्रश्न है । रचनाकार, कलाकार या कथाकार अपने 'फार्म' का निर्माता तो होता है परन्तु 'फार्म' का सुगठन एवं उसको सुडौलता आदि आवश्यक गुण निर्माता को क्षमता और व्यक्तित्व पर निर्भर करते हैं । यही कारण है कि 'फार्म' परम्परा ( ट्रेडोशन ) से जुड़ा नहीं रहता, वह पीढ़ी दर पीढ़ी बदलता रहता है ।" कलाकार सदैव नये शिल्प की तलाश में रहते हैं और उनका यह प्रयत्न तबतक चलता रहेगा. जबतक कि वे अपने कार्य से सन्तुष्ट नहीं हो जाते। स्टीवेन्सन के मत से भी 'सच्चा कलाकार प्रत्येक नये विषय के साथ अपने ढंग ( मेथड ) को अलगाता जायगा ।" यही नहीं, उपन्यासों की शिल्प-विधि के सम्बन्ध में स्काट जेम्स ने जो मत व्यक्त किया है उसे यहाँ उद्धृत किया जा सकता है । स्काट जेम्स का मत है कि • साधनापूर्वक लिखा प्रत्येक उपन्यास शिल्प- शैली में अपनी पृथक् समस्या उपस्थित करता है ।" प्रत्येक उपन्यास जो उपन्यास कहलाने के योग्य 1. “ That every great artist necessarily creates his own form also."--- Novelist on the Novels, p. 265. 2. "Form is not tradition. It alters from generation to generation.”—E. M. Forster, Two Cheers for Democracy, p. 103. 3. "Artists always seek a new technique and will continue to do so as long as their work excites them."-Ibid. 4. “With each new subject...the true artist varies his method."-Novelist on the Novels, P. 82. 5. "Every carefully written novel presents its own separate problem in method and technique."
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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