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अध्याय ३
हिन्दी प्रेमाख्यानकों का शिल्प
'शिल्प' कला का अविभाज्य अंग है जो कलाकार की अमूर्त भावना को साकार रूप प्रदान करता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी से मैंने शिल्प-विषय की जानकारी के लिए अपनी जिज्ञासा प्रकट की तो उन्होंने बताया कि शिल्प एक ऐसा प्राणतत्त्व है जिसे तथाकथित वस्तु से अलग करके नहीं देखा जा सकता। मतलब यह कि जिस वस्तुविषय का शिल्प है, यदि वह उस वस्तुविषय से पृथक कर दिया जाय तो पूर्वोक्त. वस्तु या विषय निष्प्राण हो जाएगा। यों तो कला में शिल्प का विकास सैद्धान्तिक पक्ष से पृथक् माना जा सकता है, परन्तु व्यवहार में उसे अभिव्यक्ति से पृथक् नहीं किया जा सकता। माध्यम के उपयोग की महत्ता पर अधिक जोर दिया जा सकता है, उसे कलात्मक कथ्य के स्वरूप से पूर्णतया अलग नहीं किया जा सकता। इस प्रकार जहाँ कला-वैशिष्ट्य का सैद्धान्तिक अध्ययन हो सकता है वहाँ 'अच्छी तकनीक' या शिल्प को परिभाषा 'वह योग्यता' होगी जो पूर्व निर्धारित अभिव्यक्त प्रभाव की प्राप्ति के लिए किसी माध्यम में प्रयोग की गई हो।'
1. The development of technique in the arts is theoretically,
but not practically separable from the development of expression. While facility in the use of a medium may be stressed in education and developed by practice, it can never be completely divorced from the character of an artistic statement. Thus while virtuousity may be theoretical studies, "good technique" must be defined in practice as the ability to employ a medium adequately to achieve a predetermined expressive effect.
Encyclopaedia of the Arts, p. 999, edited by Dagobert Runes and H. G. Schrickles, Peter Owen, London, 1965.