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________________ हिन्दी प्रेमाख्यानकों का ऐतिहासिक विकास : ९३ प्रमाख्यानकों में एक बात और देखने को मिलती है वह है नायक का योगीवेश धारण करना । जैसे-छिताईवार्ता में सोरंसी योगी बनता है, चन्दायन का नायक लोरक, पदमावत में रतनसेन, मधुमालती में मनोहर, चित्रावली में सुजान और मृगावती का नायक ये सभी अपनी प्रेमिकाओं की प्राप्ति के लिए योगी बनते हैं। पुहकर, नारायणदास, दाऊद, कुतूवन, मंझन और उसमान आदि सभी ने नायिकाओं का शिख-नख वर्णन किया है, जिसमें केश, ललाट, भृकुटि, नासिका, नयन, कपोल, अधर, दंतपंक्ति, कर्ण, ग्रीवा, वक्षस्थल, कूच, कटि ,नितम्ब आदि सभी का विशद वर्णन है। नायिका के विरह-वर्णन को चमत्कारिक और गंभीर करने के लिए सभी ने षड्ऋतुओं या बारहमासे की पद्धति अपनाई है। विरहिणी नायिका अपना सन्देश किसी पक्षी द्वारा ( जैसे-नागमती के विरह का संदेश सिंहल लेकर एक पक्षी जाता है ) अथवा शुक द्वारा अथवा बनजारों की टोली आदि से नायक के पास भेजतो है। उस संदेश की उपेक्षा कोई भी नायक नहीं करता। किन्हीं-किन्हीं कथाओं के कथानकों में अथवा कथानक-अभिप्रायों में काफी साम्य भी देखा गया है। इन सबसे यह प्रमाणित हो जाता है कि हिन्दी प्रेमाख्यानक अपने पूर्ववर्ती साहित्य के विकसित रूप हैं। .
SR No.002250
Book TitleApbhramsa Kathakavya evam Hindi Premakhyanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Jain
PublisherSohanlal Jain Dharm Pracharak Samiti
Publication Year1973
Total Pages382
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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