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________________ • आचार्य श्री जयन्तसेन सूरीश्वरजी की भावना आचार्यवर्य श्री जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज ने इस कमी का अनुभव किया और जैनागमों के सांस्कृतिक पक्ष मात्र को उजागर करने के साथ ही इनके समुचित परिज्ञान विभिन्न मान्यताओं का अध्ययन, शास्त्र एवं अन्यान्यशास्त्रों का विचार, ऐतिहासिक पक्ष, अन्तर्विरोध, चिन्तनपरम्परा, रीतिपरम्परा, विश्वास, जीवन-पद्धति, समन्वय-प्रधानता आदि अपेक्षित तत्वों का प्रतिपादन, दूरकालवर्ती संकेतों का स्पष्टीकरण तथा व्याख्या सापेक्ष विषयों का सांगोपांग निरूपण करने की आवश्यकता को भी अनुभव किया। यहाँ यह भी संकेत करना प्रासंगिक ही होगा कि आचार्य श्री अद्यावधि विविध विषयक अनेक ग्रंथों का प्रणयन कर चुके हैं। यद्यपि देश-विदेश के अनेक विख्यात विद्वानों ने जैन आगमों के विशिष्ट विषयों पर विस्तार से विवेचन किया है, तथापि समग्र विषयों के विस्तार से विमर्श के प्रयास नहीं हुए हैं, यह कहना असंगत नहीं है । चिन्तन दारिद्रय को हटाने तथा इन आगमों में विराजमान सर्वोपयोगी, सर्वसापेक्ष, प्राचीन समन्वय संस्कृति का उन्मीलन करने के लिए ज्ञान-गरिमा से मण्डित विविध शास्त्रों के विज्ञाता, प्राञ्जल और प्रामाणिक शैली के साहित्यकार आचार्य प्रवर जैसे मनीषी की लेखनी प्रवृत्त हो, यह नितान्त आवश्यक था। ___ आचार्यश्री ने प्राचीन और नवीन उपलब्ध आगमिक साहित्य का चिन्तन और मन्थन करके पाया कि आगमिक चिन्तन की शाश्वत सार्थकता को दृश्यसत्ता-शरीर, प्राण, मन और बुद्धि आदि को केन्द्र में रखकर इनके चारों ओर दृष्टि रखने की प्रवृत्ति तो इन लेखकों ने प्रयासपूर्वक प्रस्तुत की है किन्तु हमारे आगमों ने जिस अदृश्यसत्ता 'आत्मा' को पार्थिव उपलब्धियों की अपेक्षा मानव जाति के लिये जीवन के केंद्र में प्रतिष्ठित किया और अध्यात्मपरक जीवन के सभी स्तरों को आलोकित करने की दृष्टि के लिये अपेक्षित विवेचन को पर्याप्त स्थान नहीं दिया है । इसके साथ ही आगमों का परिचय कराने वाले विद्वानों ने विवेचना में 'उत्कृष्ट प्रस्तुति' अथवा 'सामान्य सूचनात्मक विवेचनों' से पाठकों के अन्तरंग को वैज्ञानिक प्रणाली से मुख्य प्रस्थापनाओं को आत्मसात कराने में भी औदार्य नहीं दिखाया है। देश एवं काल की सीमाओं का अतिक्रमण करके समग्र एशियाई संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले इन आगमों के द्वारा एक बार पुनः अपने विस्मृत संस्कारों और कर्तव्यों का स्मरण दिलाने तथा मानव-मात्र को विनाश के गर्त से बचाने के लिए सूरीश्वरजी द्वारा किया गया सत्संकल्प इस आगमों के अनुशीलन' में परिणत हुआ है। • गम्भीर अध्ययन से तत्व-प्राप्ति "येऽन्विष्यन्ति निमज्जभ सागरतलं तैमोक्तिकं लभ्यते” . -जो सागर के तल में डूब कर खोज करते हैं, उन्हीं को मोती-रत्न प्राप्त होते हैं। (४८)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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