SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमों में अनन्त शास्त्रकोटियों का ज्ञान समाविष्ट है । इस शब्द में 'आ' उपसर्ग के अर्थ (१) ईषद् और (२) समन्तात् दोनों आते हैं । गम शब्द का अर्थ बोध अथवा ज्ञान है। ये दोनों अर्थ जैन आगमों में यथार्थतः समाविष्ट हैं जो हेयता एवं उपादेयता के विवेचन से ज्ञेय हैं। आगम एक ऐसा परिपूर्ण ज्ञान है, जो सर्वतोमुखी और सम्यक् है । प्राचीन टीकाकारों ने आगम का अर्थ अभेद परामर्श देनेवाली ज्ञानमयी शक्ति' कहा है । आगम का एक अर्थ 'अवतरण' भी है ।इस दृष्टि से जैन आगम भगवान महावीर के उपदेशों के अवतरण से ही उपबृहित हैं। __आगम शब्द के यावन्मात्र अर्थों का समन्वय जैन आगमों पर सभी प्रकार से घटित हो जाता है । आगमों से कर्तव्य कर्मों की आज्ञारूप वस्तु की प्राप्ति होती है, जिसे 'आज्ञावस्तु समन्ताच्च गम्यत इत्यागमो मतः' इस व्युत्पत्ति से सार्थक कहा जा सकता है। परम्परा की दृष्टि से ये आगम बौद्धिक तथा सामाजिक जीवन के प्रधान स्रोत हैं। इनकी अनवरतता से चतुर्वर्ग के धर्म और मोक्ष की तथ्य पूर्ण व्यवस्थाएं प्रस्तुत हुई हैं। इनमें 'आत्मप्रकाश, स्मृति-परिशुद्धि, कर्तव्यबोध एवं जड़ीभव के निराकरण के उपायों का समुचित उल्लेख हुआ है। इन दिव्याममों की भूमिका पर आध्यात्मिक तत्वों की सशक्त प्रतिष्ठा हुई है। तीर्थंकरों की वाणी के सार से संवलित इन आगमों की व्यापक परिधि में ऐसा कोई भी उपादेय, कल्याणकारी विषय नहीं छूटा है, तथा जो संकेतमात्र से कह दिया है, उसे परम उपकारी महर्षियों पूर्वाचार्यों ने टीका, भाष्य, व्याख्या आदि के माध्यम से स्पष्ट कर दिया है । यही कारण है कि आगम और आगमों से सम्बद्ध साहित्य अतिविस्तृत हो गया है। अंग, उपांग, प्रकीर्णक, छेदसूत्र, मूलसूत्र आदि आगमों का विषय-विस्तार सर्वसाधारण की ज्ञान सीमा से बहत ही दूर होता जा रहा है। विरले आचार्य ही इस ज्ञान-सिन्धु में गोता लगाकर रत्नों को प्राप्त करते हैं । पारम्पिक दृष्टिकोण तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के परिप्रेक्ष्य में निरीक्षण, दर्शन और बुद्धि-व्यापार द्वारा ज्ञान प्राप्त करने वाले स्वतंत्रचेता आचार्य इस आगमरूप धरोहर को सुरक्षित रखने और इनमें निहित वास्तविक ज्ञान राशि से परिचित कराने का निरन्तर प्रयास करते आए हैं। ज्ञान-प्राप्ति के सर्वोत्तम साधनभूत जैनागमों से समुचित बोध की उपलब्धि के लिये- '१. दर्शन, २. अवग्रह निरीक्षण, ३. ईहा-वर्गीकरण, ४. अवाय-निष्कर्ष तथा ५. . धारणा-नियमीकरण तथा सम्प्रसारण' ये पाँच चरण निर्धारित हैं । इनके आधार पर किये जा रहे वाचन, लेखन, व्याख्यान आदि क्रिया-कलापों से सर्वज्ञोपदिष्ट अध्यात्म की धूरी पर समाज को चरम लक्ष्य एवं परम कर्तव्य का ज्ञान कराया जा रहा है किन्तु यह एक एकांगी प्रयासमात्र कहा जाएगा। क्योंकि परिचय की परिधि में इतने आगमों को आबद्ध करने से समुचित निरूपण नहीं हो पाता है। (४७)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy