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यहाँ एक बात का उल्लेख करना प्रासंगिक ही होगा, वह यह कि आगम ग्रंथों के संकलन हेतु पाँच बार वाचनाएं हुई। इसके परिणामस्वरूप इनके मौलिक रूप में कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य ही हुआ होगा। फिर भी आगम साहित्य में जो कुछ भी है उनका अधिकांश भाग सर्वथा मौलिक है । आगम ग्रंथों का विस्तृत अध्यन करने के पश्चात् ज्ञात होता है कि इन ग्रंथों में जिन विषयों का संकेत किया गया है, उनमें से कुछ विषय वर्तमान में उपलब्ध आगम ग्रंथों में नहीं है। उदाहरण स्वरूप कहा जा सकता है कि प्रश्नव्याकरण में जिस विषय का संकेत है, वह आज अनुपलब्ध है । इसी प्रकार बाद की घटनाओं और विचारधारा का समावेश होना इनमें परिवर्तन का प्रमाण है । यथा सात निन्हव और नवगणों का विवरण स्थानांग सूत्र में है।
एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि जहां वैदिक परम्परा में शब्दों की सुरक्षां पर अधिक बल दिया गया है, वहीं इसके विपरीत जैन और बौद्ध परम्परा में शब्दों के स्थान पर अर्थ पर अधिक जोर दिया गया है । इसका परिमाम यह हआ कि वेदों के शब्द तो सुरक्षित रहे किन्तु उनके अर्थों के सम्बंध में विद्वानों में मतभेद रहा। जैन और बौद्ध परम्परा के अर्थ पर जोर देने के परिणामस्वरूप ऐसी स्थिति नहीं बनी । यहाँ पाठं भेद तो हैं किन्तु अर्थ भेद नहीं है । इसके अतिरिक्त वेद किसी एक ही ऋषि के विचारों का संकलन नहीं है, इसके विपरीत जैन गणिपिटक और बौद्ध त्रिपिटक भगवान महावीर और गौतम बुद्ध की वाणी का प्रतिनिधित्व करते हैं।
सम्पूर्ण जैन आगम साहित्य का कुछ विशिष्ट दृष्टिकोण से वर्गीकरण किया गया है । जो इस प्रकार है
अंग प्रविष्ट - ११, उपांग - १२
मूलआगम - ६, या ४ एवं २ चूलिका, छेद आगम ६ और प्रकीर्णक १० इस प्रकार कुल पैंतालीस आगम ग्रंथ होते हैं।
आचार्य तोसलिपुत्र के विद्वान शिष्य आर्य रक्षित सूरि, जो आर्य वज्र के पश्चातवर्ती हैं, ने अनुयोगों के अनुसार आगम ग्रंथों का वर्गीकरण निम्नानुसार चार भागों में किया
१. चरण करणानुयोग, २. धर्म कथानुयोग ३. गणितानुयोग और ४. द्रव्यानुयोग
विषय साम्यकी दृष्टि से भी वर्गीकरण हुआ है। यह विभाजन दो भागों में है। यथा
१. अपृथक्त्वानुयोग, २. पृथक्त्वानुयोग। जैन आगम साहित्य पर और आगम ग्रंथों में वर्णित धर्म और दर्शन विषय पर