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________________ स्वकथ्य . हमारे देश भारतवर्ष में अनेक धर्म, सम्प्रदाय और जाति के लोग निवास करते हैं। उन सबकी परम्पराएँ और रीति-रिवाज भी भिन्न-भिन्न हैं। उनकी मान्यतायें भी भिन्न हैं, मान्यताओं पर आधृत सिद्धांत हैं और ये सिद्धांत उनके पवित्र ग्रंथों में संग्रहीत हैं। इस प्रकार वैदिक परम्परा में जो स्थान वेदों का है, बौद्ध परम्परा में त्रिपिटक का है, ईसाई मत में जो स्थान बाइबिल का है और इस्लाम में जो स्थान कुरान का है, वही स्थान जैन परम्परा में आगम ग्रन्थों का। ___सभी धर्मों में भेदोपभेद हैं, जैन धर्म भी इसका अपवाद नहीं है । जैन धर्म भी श्वेताम्बर-दिगम्बर भेदों में विभक्त है । यह भेद कतिपय मान्यताओं के कारण है । इस मतभेद के परिणामस्वरूप आगम ग्रंथों की मान्यता पर भी प्रभाव पड़ा। श्रेताम्बर जैन. परम्परा जिन ग्रंथों को आगम ग्रंथ स्वीकार करती है, दिगम्बर जैन परम्परा उन्हें अस्वीकार करती है । इतना ही नहीं श्वेताम्बर जैन परम्परा में भी मतभेद है । श्वेताम्बर जैन मूर्तिपूजक परम्परा जिन पैंतालीस ग्रंथों को आगम ग्रंथ स्वीकार करती है, उनमें से श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन परम्परा बत्तीस ग्रंथों को ही आगम ग्रंथ के रूप में स्वीकार करती है। ... इन आगम ग्रंथों में अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी के वचनों का संग्रह है। भगवान महावीर स्वामी की वाणी का संग्रह उनके शिष्य गणधर सुधर्मा स्वामी ने किया। प्रारम्भ में यह वाणी लिखित रूप में सुरक्षित न रहकर मौखिक रूप में ही गुरु • से शिष्य को मिलती थी, जिसे श्रुत परम्परा कहा गया है। किंतु काल के प्रभाव से श्रुत परम्परा में बाधा उत्पत्र हुई तो इसके लेखन का आरम्भ हुआ। काल के प्रभाव से ज्ञानकी '. इस अमूल्य निधि में से अनेक हीरे विलुप्त हो गए । जो कुछ भी शेष रहा उसके लिए तत्कालीन श्रुतज्ञ विज्ञ आचार्य भगवंतों ने समय समय पर वाचना परिषदों का आयोजन कर इन्हें विलुप्त होने से बचाया और जो कुछ भी उनके ज्ञान में था, उसे सुव्यवस्थित • कर सुरक्षित रखा। आज आगम साहित्य के रूप में हमारे सम्मुख जो भी ग्रंथ उपलब्ध • हैं, उसके लिए हमें उन श्रुतधर विज्ञ आचार्य भगवंतों, विद्वान मुनिवरों का उपकार मानना चाहिए। - मूल आगम ग्रंथों पर दूरदर्शी आचार्य भगवंतों, विद्वान मुनिराजों ने टीकायें, भाष्य, चूर्णियां, नियुक्तियां आदि लिखकर भी समाज पर बहुत बड़ा उपकार किया है । इन ग्रंथों के प्रणयन के परिणामस्वरूप मूल आगम ग्रंथों के अर्थ को समझने में काफी सुविधा हो गई है। गूढ़ शब्दों के अर्थ समझने में कोई कठिनाई नहीं रही।
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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