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जाते ते । कच्चे फलों को पकाने केलिए अनेक उपाय भी किये जाते थे। आम आदि को घासफूस अथवा भूसे के अन्दर रख कर गर्मी पहुँचायी जाती थी । किन्हीं को धुआँ देकर पकाया जाता था । धुएँ की गर्मी से वे फल शीघ्र पक जाते थे। इस विधि को धूम पर्यायाम कहा गया है । ककड़ी, खीरा, बिजौरा आदि को पके फलों के साथ रख देते थे। वे उनकी गंध से पक जाते थे। यह विधि गंध पर्यायाम कहलाती थी । वृक्ष पर फलों को पकाने वाली विधि को वृक्ष पर्यायाम कहते हैं ।
इतना सब होने पर भी वर्षा आदि के अभाव में भीषण अकाल पड़ा करते थे। अकाल के समय लोग अपने बाल बच्चों तक को बेच डालते थे। दासवृत्ति अपनाने तक को मजबूर होना पड़ता था। अकाल की तरह बाढ़ों का प्रकोप भी बहुत होता था। उससे खड़ी फसलें चौपट हो जाती थीं। * अन्न की सुरक्षा के उपाय
चावल की फसल तैयार हो जाने के बाद उसे हँसिया से काट कर, हाथ से मसल कर और छड़ पिचोड़ कर कोरे घड़ों में भर कर रख देते थे। बाद में उन घड़ों को लीप-पोत कर, उन्हें सीलबंद कर, उनपर मोहर लगा कर उन्हें कोठार (कोट्ठागार) में रख दिया जाता था। संबाध (संबाह) भी एक प्रकार का कोठार होता था। उसे पर्वत के विषम प्रदेशों में बनाया जाता था। घर के बाहर जंगलों में धान्य को सरक्षित रखने के लिए फूस और पत्तियों के पँगे (वलय) बनाये जाते थे और उनके अन्दर की जमीन को गोबर से लीपा जाता था । अनाज के गोल आकार के ढेर को पूँग और लंबाकार ढेर को राशि कहते थे। दीवाल और कुडच से लगा कर ढेर बनाये जाते थे। उन्हें राख से अंकित कर ऊपर से गोबर लीप दिया जाता था अथवा योग्य प्रदेश में रख कर बाँस और फूस से ढंक दिया जाता था। वर्षा ऋतु में अनाज को मिट्टी अथवा बाँस (पल्ल) के बने हुए कोठों, बाँस.के खंभों पर बने हुए कोठों अथवा घर के ऊपर बने हुए कोठों में रखा जाता था। उन पर चारों तरफ से मिट्टी से पोत दिया जाता था। बाद में उसे रेखाओं से चिह्नित कर और मिट्टी की मोहर लगाकर छोड़ दिया जाता था। इसके अतिरिक्त कुम्भी, करमी, पल्लग (पल्ल), मुत्तोली (ऊपर और नीचे संकीर्ण
और मध्य में विशाल ऐसा कोठा), मुख, हन्दुर, अलिन्द और ओचार (अपचारि) नामक कोठारों का उल्लेख किया गया है।
___ गंजशाला में धान्य कूटे जाते थे। चावलों को ओखली (उखूल) में छड़ा जाता था। उनको मल कर साफ करने के स्थान को खलय (खलिहान) कहते थे । सूप (सुप्तकतर) द्वारा अनाज साफ किया जाता था।
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