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________________ हाथियों की भाँति घोड़ों का भी बहुत महत्व था । घुड़सवार पहले से ही शत्रु पर आक्रमण कर देते थे। वे शत्रुसेना में घुस कर उसे विचलित कर देते थे। वे अपनी सेना की रक्षा करते थे और शत्रु द्वारा पकड़े हुए अपने सैनिकों को छुड़ा लेते थे। वे शत्र के कोष तथा राजकुमार का अपहरण कर लेते थे । तथा जिनके घोड़े मर गये हैं. ऐसे सैनिकों का पीछा करके उन्हें पकड़ लेते थे तथा शत्रु सेना को दूर खदेड़ देते थे। पदाति (पैदल सेना) सेना का मुख्य अंग था। ये लोग हाथ में तलवार, भाला, धनुषबाण आदि लेकर चलते थे तथा बाण आदि के प्रहार से स्वयं की रक्षा के लिए सन्नद्ध हो कर वर्म और कवच धारण किये रहते थे। वे अपनी भुजाओं पर चर्म पट्ट बाँधते थे तथा उनकी गर्दन आभूषणों से एवं उनका मस्तक वीरता सूचक पट्ट से शोभित रहता था। योद्धा लोग धनुष चलाते समय आलीढ़, प्रत्यालीढ, वैशाखमण्डल और समपाद नाम के आसन स्वीकार करते थे। समस्त सेना सेनापति के नियंत्रण में रहती थी। अपनी सेना में व्यवस्था और अनुशासन बनाये रखने के लिए वह सदा सचेष्ट रहता था। युद्ध के अवसर पर राजा की आज्ञा पा कर वह सेना को सज्ज करता और कूच के लिए तैयार रहता था। युद्ध प्रारंभ करने के पूर्व आक्रमणकारी राजा शत्रु के नगर को चारो ओर से घेर लेता था, फिर भी यदि शत्रु आत्मसमर्पण के लिए तैयार नहीं होता था, तो दोनों पक्षों में युद्ध होने लगता था । राजा लोग अपने नगर की किलेबंदी बड़ी मजबूती से किया करते थे। नगर के चारों ओर परकोटा, परिखा, गोपुर (किले का दरवाजा) और अट्टालिकाएँ आदि बनाये जाते थे । कोठारों को अनाज से भरकर युद्ध की तैयारियाँ की जाती थी । युद्ध अनेक प्रकार से लड़े जाते थे। आगम साहित्य में युद्ध, नियुद्ध, महायुद्ध, महासंग्राम आदि युद्ध के अनेक प्रकार बतलाए हैं । इनके अलावा दृष्टियुद्ध, वाक्यदुधं, बाहुयुद्ध, मुष्ठियुद्ध और दंडयुद्ध का भी उल्लेख मिलता है । महासंग्राम में गरुंडव्यूह, शकट व्यूह, चक्रव्यूह, दंडव्यूह और सूची व्यूह आदि व्यूह रचना की जाती थी। महाशिला कंटक और रथमूसल नामक युद्ध भी महासंग्राम के ही भेद हैं। ___युद्ध में कूटनीति का बड़ा महत्व था। युद्धनीति में निपुण मंत्री अपनी चतुराई, बुद्धिमत्ता और कला कौशल द्वारा ऐसे अनेक प्रयत्न करते, जिससे शत्रुपक्ष को आत्मसमर्पण के लिए बाध्य किया जा सके । चर कर्म कूटनीति का मुख्य अंग था। शत्रुसेना की गुप्त बातों का पता लगाने के लिए गुप्तचरों का उपयोग किया जाता था। ये लोग उनकी सब बातों का पता लगाते रहते थे। युद्ध के पहले समझौता करने के लिए दूत भेजे जाते थे । फिर भी यदि विपक्षी कोई परवाह नहीं करता, तो दूत राजा के पाद पीठ का अपने बायें पैर से अतिक्रमण (१९१)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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