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________________ इसके अतिरिक्त ग्राम महत्तर, राष्ट्र महत्तर (रटुडड - राठौर), गणनायक, दंडनायक, तलवर, कोतवाल (नगर रक्षक) कौटुंबिक, गणकर ज्योतिषी, वैद्य, इभ्य (श्रीमन्त), ईश्वर सेनापति, सार्थवाह, संधिपाल, पीठमर्द, महामात्र (महावत), यानशालिक, विदूषक, दूत, चेट (वार्ता निवेदक), किंकर, कर्मकर, असिग्राही, धनग्राही, कोतग्राही, छत्रग्राही, चामरग्राही, वीणाग्राही, मांड, अभ्यंग लगाने वाला, उबटन मलने वाले, स्नान कराने वाले, वेषभूषा से मंडित करने वाले, पगचंपी करने वाले आदि कितने ही कर्मचारी राजा की सेवा के लिए रहते थे। * सैन्य व्यवस्था __राजा को अपने राज्य की सुरक्षा के लिए सदैव सजग रहना पड़ता था, क्योंकि उस काल में राज्य विस्तार की आकांक्षा के अतिरिक्त शौर्य प्रदर्शन, रूपवती स्त्रियों को प्राप्त करने के लिए अथवा स्वयंवरों में कन्या को प्राप्त करने के लिए प्राय: युद्ध हुआ करते थे । कभी-कभी किसी राजा के पास कोई बहुमूल्य वस्तु होती तो उसे प्राप्त करने के लिए प्राय: युद्ध छिड़ जाते थे। युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए रथ, अश्व, हाथी और पदाति अत्यंत उपयोगी होते थे। इसलिए प्रत्येक राजा इन चारों अंगों को सबल बनाने की ओर विशेष ध्यान देता था। इनमें रथ का सबसे अधिक महत्व था। उसे छत्र, ध्वजा, पताका, घंटा, तोरण, नन्दीघोष और छोटी-छोटी घंटियों से मंडित किया जाता था। उस पर सोने की सुन्दर चित्रकारी बनायी जाती थी और धनुष-बाण, तूणीर, खड्ग, शिरस्त्राण आदि अस्त्र शस्त्रों से उसे समृद्ध किया जाता था । रथ अनेक प्रकार के बताये गये हैं। संग्राम रथ में कटिप्रमाण फलकमय वेदिका बनायी जाती थी। ___ हाथियों के अनेक प्रकार होते हैं। उनमें गंधहस्ती जाति के हाथी सर्वोत्तम होते हैं। प्रत्येक राजा का एक प्रमुख हाथी होता था। युद्ध के समय हाथियों को उज्ज्वल वस्त्र, कवच, गले में आभूषण और कर्णफूल पहनाये जाते थे। उनके पेट पर रस्सी बाँध कर उन पर लटकती हुई झूलें डाल कर, छत्र, ध्वजा और घंटे लटका कर उसे अस्त्र-शस्त्र तथा ढालों से सुशोभित किया जाता था। विंध्याचल के जंगलों में हाथियों के झुंड घूमते फिरते थे। उन्हें पकड़ कर शिक्षा दी जाती थी । हाथियों को शिक्षा देने वाले दमग उन्हें वश में करते थे । महावत हस्तीशाला की देखभाल करते थे और अंकुश की सहायता से वे हाथी से अपनी इच्छानुसार काम लेते थे तथा झूल, ध्वजा, माला एवं विविध अलंकारों से उसे सजाते थे। हाथियों की पीठ पर अंबारी रखी जाती थी। उसमें बैठा हुआ मनुष्य दिखायी नहीं देता था। (१९०)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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