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सौतों की ड़ाह भी प्रसिद्ध है । अन्तःपुर में भी सपत्नियों में आपसी लड़ाई झगड़े होते थे । उनका परिणाम अत्यन्त भंयकर होता था । यहाँ तक कि सौत और उसके सगे संबंधियों की हत्या कर दी जाती थी । इसी प्रकार वे अपने सौतेले पुत्रों से भी ईर्ष्या करती थीं और उनको मारने के उपाय करती थीं। इसके अनेक उदाहरण आगम साहित्य में उपलब्ध हैं। उनसे यह मालूम होता है कि किस तरह अनेक सौतों ने अपनी सौत को मरवा डाला ।
राजा
प्रधान पुरुष
जैन ग्रंथों में राजा, युवराज, अमात्य, श्रेष्ठी और पुरोहित ये पाँच राज्य के प्रधान पुरुष बतलाये हैं। पहले यह बताया जा चुका है कि राजा की मृत्यु होने पर अथवा उसके दीक्षित होने पर युवराज को राजपद पर अभिषिक्त किया जाता था ।
युवराज को राज काज में निपुण बनाने के लिए और सुरक्षा की समुचित व्यवस्था करने के लिए उसकी शिक्षा का विशेष प्रबंध किया जाता था । वह बहत्तर कलाओं, अठारह देशी भाषाओं, गीत, नृत्य, हस्तियुद्ध, अश्वयुद्ध, मुष्ठियुद्ध, बाहुयुद्ध, लतायुद्ध तथा धनुर्वेद आदि में पारंगत होता था । समस्त आवश्यक कार्य करने के बाद सभामंडप में पहुँचकर वह राजकाज की देखभाल करता था । युवराज को युद्धनीति की शिक्षा तो प्रारंभ में ही दी जाती थी और यदि कोई पड़ौसी राजा उपद्रव करता, तो उसे शान्त करना उसका कर्त्तव्य होता था ।
. युवराज पद के अनन्तर अमात्य अथवा मंत्री का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण था । वह व्यवहार और नीति में निपुण होता था तथा राज्य के प्रत्येक गाँव की खबर रखता था । साम, दाम, दंड, भेद नीति में कुशल होना उसकी योग्यता मानी जाती थी । राजा अपने अनेक कार्यों और गुप्त रहस्यों के बारे में अमात्यों से मंत्रणा करते थे | मंत्री राजा कों हितकारी शिक्षा देते थे और खास परिस्थिति में अयोग्य राजा को हटा कर दूसरे राजा को गद्दी पर बिठा देते थे । आन्तरिक उपद्रवों और बाह्य आक्रमणों से राज्य की रक्षा करने के लिए मंत्रीगण गुप्तचरों की नियुक्ति करते थे । वे अन्त:पुर से लेकर अपने राज्य और परराज्यों में घूमते रहते थे और सभी तरह की सूचनाएँ मंत्री तक पहुँचाते थे ।
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धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करने के लिए पुरोहित रखे जाते थे । वे शांति के लिए जप आदि का आयोजन भी करते थे ।
. श्रेष्ठी ( णिगमारक्खिअ - नगर सेठ) अठारह प्रकार की श्रेणियों का प्रमुख होता था । राजा द्वारा मान्य होने के कारण उसका मस्तक देवमुद्रा से भूषित सुवर्णपट्ट शोभित रहता था ।
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