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________________ * राजा का अन्त:पुर राजा लोग राजभवनों या प्रासादों में निवास करते थे। देवों के निवास को प्रासाद और राजाओं के निवास स्थान को भवन कहते हैं। प्रासाद ऊँचे होते हैं और उनकी ऊँचाई चौड़ाई की अपेक्षा दगनी होती है और भवन की ऊँचाई चौड़ाई की अपेक्षा कम होती है। प्राचीन सूत्रों में आठ तल वाले प्रासादों का उल्लेख है। ये प्रासाद सुन्दर शिखरों से युक्त तथा ध्वजा, पताका, छत और मालाओं से सुशोभित होते थे। इनके फर्शों में भाँति-भाँति के मणि मुक्ता जड़े रहते थे। विविध प्रकार के नृत्य और गान यहाँ होते रहते थे और बाजों की मधुर ध्वनि गूंजती रहती थी। इन राजभवनों में अन्त:पुर का स्थान बड़ा महत्वपूर्ण था। देश की आंतरिक और बाह्य राजनीतिक उथल-पुथल में अन्त:पुर का विशेष हाथ रहा करता था। ये अन्त:पुर अनेक प्रकार के होते थे। जीर्ण अन्त:पुर में वे अपरिभोग्य स्त्रियाँ रहती थीं, जिनका यौवन ढल गया है । नव अन्त:पुर यौवनवती परिभोग्य स्त्रियों का निवास स्थान था। कन्या अन्त:पुर में यौवन को अप्राप्त कन्याएँ रहती थीं। अन्त:पुर को अधिकाधिक समृद्ध और आधुनिक बनाने के लिए राजागण सदा प्रयत्नशील रहते थे और बिना किसी जातीय भेदभाव के सुन्दर कन्याओं और स्त्रियों से उसे संपन्न करते थे । रूपवती स्त्रियों का अधिक से अधिक संग्रह होना तत्कालीन युग के वैभव प्रदर्शन का अंग माना जाता था। अन्त:पुर को सदा खतरा बना रहता था। इसलिए राजा लोग उसकी बड़ी सावधानी से रक्षा करने के लिए प्रयत्नशील व सजग रहते थे। नपुंसक और वृद्ध पुरुष अन्त:पुर की रक्षा के लिए तैनात किये जाते थे। कंचुकी को राजा के महल में आने जाने की छूट थी । वह विनीत वेष धारण करता तथा राजा की आज्ञापूर्वक अन्त:पुर की रानियों के पास राजा का संदेश और रानियों का संदेश राजा के पास पहुँचाता था। महत्तर अन्त:पुर का एक अन्य अधिकारी था। वह राजा और रानियों के बीच अन्तरंग बातों को पहँचाने के लिए सूत्रधार का काम करता था। दंडधर हाथ में दंड धारण कर अन्त:पुर में पहरा देते थे। दंडारक्षक राजा की आज्ञा से किसी स्त्री अथवा पुरुष को अन्त:पुर में ले जाते थे और दौवारिक द्वार पर बैठ कर अन्त:पुर की रक्षा करते थे। इतनी सावधानी रखने पर भी अन्त:पुर की रानियाँ यदि किसी अन्य व्यक्ति के साथ अनैतिक आचरण करती हुई पायी जाती तो उसका परिणाम अनर्थकारी होता था और यहाँ तक कि प्राणदंड भी दे दिया जाता था। कन्दर्पबहुल मायावी पशु-पक्षियों का भी प्रवेश अन्त:पुर में निषिद्ध था। इससे ज्ञात होता है कि उस समय अन्त:पुर की रक्षा के लिए राजाओं को सदा सावधानी रखनी पड़ती थी। (१८८)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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