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________________ प्राचीन काल में जैसे राजाओं का होना आवश्यक बताया गया है, वैसे ही राजा को गुण संपन्न होना भी आवश्यक बताया है। सर्वप्रथम तो राजा का मातृपक्ष और पितृपक्ष शुद्ध होना जरूरी है और उसके बाद उसे मृदुभाषी, राजनीति में कुशल एवं धर्म में श्रद्धावान होना चाहिये। यदि वह लंपट है, द्यूतरमण करता है, मद्यपान करता है, शिकार में समय व्यतीत करता है, कठोर वचन बोलता है, कठोर दंड देता है और धनसंचय की तरफ ध्यान नहीं देता है, उचित टेक्स नहीं लगाता है, तो वह शीघ्र ही नाश को प्राप्त होता है । मतलब यह है कि शासन की सुव्यवस्था के लिए राजा का सुयोग्य होना आवश्यक है। * राजा की दिनचर्या का प्रारम्भ राजा प्रात: उठकर व्यायाम करता फिर अपने शरीर का मर्दन करवाता था जिससे उसकी थकान समाप्त हो जाया करती थी। कल्पसूत्र में भगवान महावीर के पिता महाराजा सिद्धार्थ के सम्बन्ध में उल्लेख है कि सूर्योदय होने पर वे अपनी शय्या से उठकर व्यायामशाला से परिश्रमित हो जाते तब थकान दूर करने के लिए सौ औषधियों से बनाये हुए, सौ बार पकाये गए या सौ द्रव्य खर्च ने से बने हुए शतपाक तेल से उत्पन्न हुए सहस्रपाक आदि सुगंधित तेलों से मर्दन करवाते । यह मर्दन अत्यंत गुणकारी, रस, रुधिर धातुओं की वृद्धि करने वाला, क्षुधा अग्निं को दीप्त करने वाला, बल, मांस, उन्माद को बढ़ाने वाला, कामोद्दीपक, पुष्टिकारक तथा सर्व इन्द्रियों को सुखदायक था। इसके आगे मर्दन करने वालों के लिये कहा गया है कि वे मर्दन करने वाले भी सम्पूर्ण अंगुलियों सहित सुकुमार हाथ पैर वाले, मर्दन करने में प्रवीण और अन्य मर्दन करने वालों से विशेषज्ञ, बुद्धिमान तथा परिश्रम को जीतने वाले थे। ऐसे मालिश करने वाले पुरुष अस्थि, मांस, त्वचा, रोम इन चारों को सुखदायक होते थे। कल्प सूत्र का यह विवरण विशेष प्रकार के तेलों के निर्माण की जानकारी प्रदान करता है। साथ ही इस विवरण से यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि तत्कालीन राजा/राजाओं की दिनचर्या व्यायाम, मालिश और स्नान से प्रारम्भ होती थी। * राजा का उत्तराधिकारी राजा का पद साधारणतया वंश परंपरागत माना जाता था । यदि राजपुत्र अपने पिता का इकलौता बेटा होता, तो राजा की मृत्यु या राजा के दीक्षा लेने के बाद प्राय: वही राजसिंहासन का अधिकारी होता था। लेकिन यदि उसका सगा या सौतेला भाई होता, तो उनमें परस्पर द्वेष होने लगता और राजा की मृत्यु के पश्चात् यह द्वेष (१८६)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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