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अध्याय १०
आगम साहित्य में शासन व्यवस्था के उल्लेख
आत्मसाधना और निवृत्ति जैन धर्म का लक्ष्य होने से आगमों में इहलौकिक विधिविधानों के बजाय, तप, त्याग, वैराग्य पर ही अधिक भार दिया गया है। इस कारण अन्य धर्म ग्रंथों की भाँति आगमों में शासन-समाज आदि की व्यवस्था नियामक पद्धति, प्रणाली, विधान का व्यवस्थित उल्लेख नहीं मिलता.। यदि कोई उल्लेख है, तो वे केवल कथा कहानियों के रूप में उपलब्ध हैं, जो तत्कालीन सामान्य जनजीवन के व्यावहा ि कार्यों का दर्शन कराते हैं । इस स्थिति में आगमों में यत्र-तत्र उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर ही तत्कालीन समाज आदि की व्यवस्था की तरह प्रस्तुत में शासन व्यवस्था का दिग्दर्शन कराते हैं। * राजा और राजपद
प्राचीन भारत की शासन व्यवस्था में राजा का प्रमुख स्थान रहा है । जितने भी प्राचीन भारतीय कथानक मिलते हैं, उनमें राजा रानी का वर्णन अवश्य ही दिया गया है। कितने ही कथानकों का प्रारंभ 'एक था राजा' के वाक्य से प्रारंभ हुए सुनने-पढ़ने को मिलते हैं । जैन परंपरा भी इससे अछूती नहीं रही है । इस कारण आगमगत लोक जीवन के वर्णन में राजा का उल्लेख सर्वप्रथम किया गया है। ... जैन परंपरा के अनुसार आदि तीर्थंकर ऋषभदेव प्रथम राजा हुए, जिन्होंने भारत की प्रथम राजधानी इक्ष्वाकु भूमि अयोध्या में राज किया। इसके पूर्व युगलिक युग था । उस काल में न कोई राजा था और न राज्य था, न दंड था और न दंडविधान का कर्ता। सभी अपने आप अनुशासित रह कर स्वधर्म का पालन करते थे। इस कारण लोगों में न कोई झगड़ा था और न वैमनस्य । जब कलह ही नहीं था, तो दंड की भी आवश्यकता नहीं थी। लेकिन तीसरे आरे के अन्त में जब कल्पवृक्षों का प्रभाव घटने लगा, मनुष्य अपने धर्म से डिगने लगे, तो शासन और शासक की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी और सभी ने अंतिम कुलकर नाभि के पास पहुँच कर अनुरोध किया कि अपने पत्र ऋषभदेव को शासक राजा बना कर राज्य व्यवस्था स्थापित करे । उनके अनुरोध पर नाभि ने ऋषभदेव का राज्याभिषेक किया।
ऋषभदेव ने समाज जीवन को व्यवस्थित बनाने के लिए शिल्प कला कौशल, कृषि आदि का उपदेश दिया एवं दंड व्यवस्था का विधान किया। इसके बाद उत्तरकाल में राजाओं की परंपरा चालू हो गयी।
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