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________________ महानिशीथ - इसका परिचय पूर्व में दिया गया है। उससे ज्ञात होता है कि भाषा और विषय की दृष्टि के संबंध से एवं यत्र तत्र आगमेतर ग्रंथों के उल्लेख मिलने से इसे प्राचीन आगम ग्रंथों की कोटि में नहीं माना जा सकता । इस पर चूर्णि, टीका लिखे जाने की जानकारी मिलती है । जीतकल्प- इस पर भाष्य, चूर्णि, बृहच्चूर्णि और विषम पद व्याख्या ये चार टीका ग्रंथ लिखे जाने के उल्लेख मिलते हैं । जीतकल्पसूत्र के रचयिता विशेषावश्यक भाष्यकार जिनभद्रगणि क्षमा श्रमण हैं । उन्होंने स्वयं ही इस पर भाष्य लिखा है । भाष्य में २६०६ गाथाएँ हैं । उसमें बृहत्कल्प लघुभाषा, व्यवहार भाष्य, पंचकल्प भाष्य, पिण्डनिर्युक्ति आदि की अनेक गाथाएँ अक्षरशः मिलती है । इस तथ्य को ध्यान में रखने पर यह कहा जा सकता है कि प्रस्तुत भाष्य ग्रंथ कल्पभाष्य आदि ग्रंथों की गाथाओं का संग्रह रूप है 1 1 सर्वप्रथम शब्द का निरुक्त्यर्थ करते हुए प्रवचन को नमस्कार किया है । इस बाद प्रायश्चित की व्याख्या करने का संकल्प करते हुए प्रायश्चित का निरुक्त्यर्थ दिया है। इसके बाद जीत व्यवहार का व्याख्यान करने के लिए आगमादि व्यवहार पंचक, प्रायश्चित के स्थान, प्रायश्चितदाता, प्रायश्चितदान की सापेक्षता, भक्त परिज्ञा, इंगिनीमरण, पादपोपगमन, श्रुतादि व्यवहार, जीत व्यवहार, प्रायश्चित के भेद, आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र प्रायश्चित, विवेक, उत्सर्ग, तप, छेद और मूल, अनवस्थाप्य, पारांचिक, प्रायश्चितों का वर्णन किया गया है । जीत कल्प प्रर जीतकल्प चूर्णि और जीतकल्प बृहच्चूर्णि ये दो चूर्णि ग्रंथ लिखे गए हैं। वर्तमान में सिद्धसेन सूरि विरचित जीतकल्प बृहच्चूर्णि उपलब्ध है । उससे ज्ञात होता है कि इससे पूर्व एक चूर्णि लिखी गई थी । उपलब्ध चूर्णि शुद्ध प्राकृत भाषा में लिखी गई है। इसमें संस्कृत का प्रयोग कहीं भी नहीं किया गया है। प्रारंभ में ग्यारह गाथाओं में भगवान महावीर, ग्यारह गणधर, अन्य विशिष्ट ज्ञानी तथा सूत्रकार जिनभद्र मणि क्षमाश्रमण को नमस्कार किया गया है। ग्रंथ में यत्र तत्र यद्यपि ग्रंथान्तरों की गाथाएँ उद्धृत की गई है, लेकिन ग्रंथों के नामों का उल्लेख नहीं किया है । चूर्णि में भी उन्हीं विषयों का गद्य में वर्णन है, जिनका भाष्य में विस्तार से विवेचन किया गया है । अंत में पुनः सूत्रकार जिनभद्र गणि को नमस्कार करते हुए चूर्णि समाप्त की हैं । (१६१)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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