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________________ उक्त जीतकल्प बृहचूर्णि के विषय पदों के व्याख्यान के रूप में श्री चंद्रसूरि ने संस्कृत में जीतकल्प बृहच्चूर्णि विषय पद व्याख्या नामक टीका लिखी है । प्रारंभ में भगवान महावीर को नमस्कार करने की प्रतिज्ञा की है। अनन्तर कठिन पदों का व्याख्यान प्रारंभ किया है । बीच-बीच में अपने वक्तव्य की पुष्टि के लिए प्राकृत गाथाएँ उद्धृत की है । अंत में व्याख्याकार ने अपने नामोल्लेखपूर्वक संवत् १२२७ महावीर जन्म कल्याणक रविवार को व्याख्या समाप्त होने का संकेत दिया है । इसका ग्रंथमान ११२० श्लोक प्रमाण है । इसके अतिरिक्त शिवप्रभसूरि के शिष्य श्री तिलकसूरि ने भी एक टीका ग्रंथ लिखा है। चतुःशरण आदि वीरस्तव पर्यन्त ये ग्यारह प्रकीर्णक ग्रंथों के नाम है, जो आगम के रूप में माने जाते हैं। उनके विषयों का पूर्व में उल्लेख किया गया है। उनमें से चतुःशरण, आतुर प्रत्याख्यान और संस्तारक की टीका महेंद्रसूरि (संवत् १२९४) के शिष्य भुवनतुंग सूरि ने लिखी है । इसी प्रकार गुणरत्नसूरि (स. १४९४) ने भक्त परिज्ञा, संस्तारक, चतुःशरण और आतुरप्रत्याख्यान नामक प्रकीर्णकों पर टीकाएँ लिखी हैं। अभिधान राजेन्द्र कोशकार श्री राजेन्द्रसरिजी महाराज ने गच्छाचार पयत्रा वृत्ति का गुजराती में भाषान्तर किया है । इस ग्रंथ के तीन अधिकार हैं-आचार्य स्वरूप, यति स्वरूप और साध्वी स्वरूप। यह ग्रंथ मुख्य रूप से श्रमण जीवन के आचार विचारों का विवेचक है। इसकी वृत्ति आनन्द विमल सूरि के शिष्य विजय विमल गणि ने लिखी है, जिसका श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी ने गुजराती भाषान्तर किया है। इसमें गच्छ के महत्व का प्रतिपादन करते हुए लिखा है कि गच्छ महान प्रभावशाली है। उसमें रहने से महान निर्जरा होती है । सारणा वारणा और प्रेरणा होने से साधक के पुराने दोष नष्ट हो जाते हैं और नूतन दोषों की उत्पत्ति नहीं होती । श्रमण श्रमणियों की मर्यादा का वर्णन करते हुए इसमें लिखा है कि श्रमणों को श्रमणियों से अधिक परिचय नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनका परिचय अग्नि और विष के समान है। संभव है कि यविर का चित्त पूर्ण स्थिर हो, तथापि अग्नि के समीप घी रहने से जैसे वह पिघल जाता है, वैसे ही स्थविर के संसर्ग से आर्या का चित्त पिघल सकता है । यदि उस समय कदाचित स्थविर को भी अपनी संयम साधना की विस्मृति हो जाए, तो उसकी भी वैसी ही स्थिति होती है, जैसे श्लेष्म में लिपटी हुई मक्खी की होती है । एतदर्थ श्रमण को बाला, वृद्धा, नातिन, दुहिता और भगिनी तक के शरीर का स्पर्श करने का निषेध (१६२)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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