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________________ वृत्ति का संशोधन द्रोणाचार्य ने अणहिल पाटण नगर में किया । टीका का मान ३१२५ श्लोक प्रमाण है। .. राजप्रश्नीय- इस दूसरे उपांग की नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि व्याख्या नहीं हुई है । संस्कृत टीकाकार आचार्य मलयगिरि एवं लोकभाषा टीकाकार मुनि धर्म सिंह है। संस्कृत टीकाकार ने प्रारंभ में वीर जिनेश्वर को नमस्कार करके बताया है कि राजा के प्रश्नों से संबंधित होने के कारण यह राजप्रश्नीय कहलाता है। प्रदेशी राजा और केशी कुमार श्रमण के बीच हुए जीवविषयक प्रश्नोंत्तर आदि का वर्णन इस ग्रंथ में किये जाने से यह सार्थक नाम वाला है । यत्र तत्र जीवाभिगम मूल और टीका का उल्लेख करके उसके उदाहरण दिये हैं और सूत्रों के पाठ भेदों का भी निर्देश किया है । टीका का ग्रंथमान ३७०० श्लोक प्रमाण है। जीवाभिगम सूत्र- इस उपांग पर चूर्णि और संस्कृत टीका लिखी गई है। चूर्णि अनुपलब्ध है । आचार्य मलयगिरि ने अपनी संस्कृत टीका में मूल सूत्र के प्रत्येक पद का व्याख्यान किया है । यत्र तत्र अनेक प्राचीन ग्रंथों व ग्रंथकारों के नामों व उनके उद्धरणों का उल्लेख किया है, जिससे ऐसे अनेक ग्रंथों व उनके रचयिताओं का ज्ञान होता है, जो वर्तमान में अज्ञात है अथवा ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। ___ श्री पद्मसागर गणिने (संवत १७००) भी जीवभिगम सूत्र पर एक सरल, सुबोध टीका ग्रंथ लिखा है। .. .... प्रज्ञापना सूत्र- आचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना वृत्ति नामक एक संस्कृत टीका ग्रंथ लिखा है । प्रारंभ में मंगलाचरणात्मक चार श्लोकों में क्रमश: भगवान महावीर, जिन, प्रवचन और गुरु को नमस्कार करके टीका लिखने की प्रतिज्ञा की है । प्रज्ञापना का शब्दार्थ बताते हुए कहा है कि जिसके द्वारा जीवादि पदार्थों का भली प्रकार से ज्ञान किया जा सकता है, उसे प्रज्ञापना कहते हैं । उसे समवायांग में प्रतिपादित करते हुए अपने पूर्ववती टीकाकार आचार्य हरिभद्र को नमस्कार किया है और कहा है कि मैं उनके द्वारा कृत प्रज्ञापना सूत्र के विषय पदों का आधार लेकर यह टीका लिखने में समर्थ हो सका हूँ और एक छोटा मोटा टीकाकार बन गया हूँ। वृत्ति का ग्रंथमान १६००० श्लोक प्रमाण हैं। _आचार्य हरिभद्र सूरि ने प्रज्ञापना प्रदेश व्याख्या नामक टीका लिखी है, जिसके प्रथम पद में जीव प्रज्ञापना और अजीव प्रज्ञापना का वर्णन करते हुए एकेंद्रिय आदि जीवों का विस्तार से वर्णन है। द्वितीय पद की व्याख्या में पृथ्वीकाय आदि और द्वीन्द्रियादि के स्थानों का, तृतीय पद की व्याख्या में काय, अल्पबहुत्व, वेद, लेश्या, इन्द्रिय आदि दृष्टियों से जीव विचार, लोकसंबंधी अल्पबहुत्व, आयुर्बध का (१४३)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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