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अल्पबहुत्व, पुद्गल का अल्प बहुत्व आदि विषयों का विवेचन किया है । चतुर्थ पद में नारकों की स्थिति का, पंचम पद में नारक पर्याय का अवगाह, कर्मस्थिति, जीव पर्याय आदि का विश्लेषण है । छठे और सातवें पद की व्याख्या में संज्ञा के स्वरूप का, नवम पद की व्याख्या में विविध योनियों का दशम पद की व्याख्या में नरकभूमियों की चरम और अचरम दृष्टि का, ग्यारहवें. पद की व्याख्या में भाषा के स्वरूप का और बारहवें पद की व्याख्या में औदारिकादि शरीरों के स्वरूप का व्याख्यान किया गया है । इसी प्रकार तेरहवे से लेकर तीसवें पद तक की व्याख्या में जीव और अजीव के विविध परिणामों का, कषाय, इन्द्रिय, प्रयोग, लेश्या, कायस्थिति, अंतक्रिया, अवगाहना- संस्थान आदि क्रिया, कर्मप्रकृति, कर्म बंध, आज्ञा परिणाम, उपयोग, पश्यता, संज्ञा, संयम, अवधि, प्रवीचार, वंदना और समुद्घात का विवेचन किया है। उपयोग और पश्यता में भेद रेखा खींचते हुए बताया है कि पश्यता में त्रैकालिक अवबोध होता है, जबकि उपयोग में वर्तमान और त्रिकाल दोनों का अवबोध समाविष्ट है। यही कारण है कि साकार उपयोग आठ प्रकार है, जबकि साक्षात पश्यता छह प्रकार की है। साकार पश्यता में सांप्रतकाल विषय का मतिज्ञान और मतिअज्ञान रूप साकार उपयोग के दो भेदों का समावेश नहीं होता।
अभयदेव सूरि ने प्रज्ञापना सूत्र के तृतीय पद पर संग्रहणी लिखी हैं, जो शब्दार्थ प्रधान होने के साथ-साथ संक्षिप्त सारांश की जानकारी कराने के लिए उपयोगी हैं।
मुनि धर्मसिंह ने लोकभाषा में प्रज्ञापना का यंत्र ग्रंथ लिखा है, जो अप्रकाशित
अभिधान कोशकार श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी महाराज ने भी प्रज्ञापनोपांग सूत्र सटीक (त्रिपाठ) की रचना की है, जो अप्रकाशित है।
सूर्य प्रज्ञप्ति-आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) ने इस पर नियुक्ति लिखी थी, लेकिन वह अनुपलब्ध है। आचार्य मलयगिरि ने सूर्य प्रज्ञप्ति विवरण नामक संस्कृत टीका लिखी है । ग्रंथमान लगभग ९५०० श्लोक प्रमाण है।
टीका प्रारंभ करते हए वीर जिनेश्वर को नमस्कार करके यह उल्लेख किया है कि भद्रबाहु सूरि कृत नियुक्ति के नष्ट हो जाने के कारण मैं केवल मूलसूत्र का ही व्याख्यान करूँगा। पश्चात् प्रथम सूत्र की उत्थानिका में सूत्रस्पर्शी व्याख्यान करते हए मिथिला नगरी, मणिभद्र चैत्य, जितशत्र राजा, धारिणी देवी और महावीर जिन का धाराप्रवाह लालित्य पूर्ण वर्णन किया है । द्वितीय सूत्र की व्याख्या में इन्द्रभूति गौतम का, तृतीय सूत्र की वृत्ति में सूर्य प्रज्ञप्ति के मूल विषय को बीस प्राभृतों में विवेचित किया है। उनमें सूर्य और चन्द्र के परिक्रमण, सूर्य का प्रकाश, संस्थान, संवत्सर आदि,
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