SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उनका भी इस वृत्ति में विवेचन किया गया है । कहीं कहीं दोनों टीकाओं के वर्णन में समान दृष्टिकोण देखने को मिलता है । यह वृत्ति वि.सं. १७९३ के कुछ ही समय पूर्व संभवत: वि.सं. १७७३ के आस-पास लिखी गयी है । ग्रंथमान ७५०० श्लोक प्रमाण विपाक सूत्र-वर्धमान स्वामी को नमस्कार करने के पश्चात् संस्कृत टीकाकार अभयदेव सूरि ने विपाक वृत्ति लिखने की प्रतिज्ञा करके अपनी पूर्वकृत टीकाओं का अनुसरण करते हुए सर्वप्रथम विपाकसूत्र का अर्थ बतलाया है कि विपाक याने पुण्यपाप रूप कर्म फल और उसका प्रतिपादन करने वाला सूत्र विपाकसूत्र कहलाता है। यह श्रुत द्वादशांग रूप प्रवचन पुरुष का ग्यारहवां अंग है । टीका में यथा स्थान पारिभाषिक एवं तत्कालीन लोक प्रचलित शब्दों का संक्षिप्त एवं संतुलित अर्थ स्पष्ट किया है और अन्त में त्रुटियों को संशोधित करने के लिए विद्वज्जनों से निवेदन किया है।. इस प्रकार उपलब्ध अंग आगमों के व्याख्या ग्रंथों का परिचय.देने के बाद अंगबाह्य आगामिक व्याख्या ग्रंथों का परिचय प्रस्तुत करते हैं। औपपातिक सूत्र-जैसे अंग प्रविष्ट आगमों में आचारांग पहला आगम है, वैसे ही अंगबाह्य आगमों में औपपातिक सूत्र पहला आगम है । इसकी संस्कृत टीका आचार्य अभयदेव सूरि ने व लोक भाषा टीका मुनि धर्मसिंह ने लिखी है। ___संस्कृत टीका शब्दार्थ प्रधान है और प्रारंभ में वर्धमान स्वामी को नमस्कार करके इसकी व्याख्या लिखने की प्रतिज्ञा की है एवं औपपातिक का अर्थ करते हुए कहा है कि देवों और नारकों के जन्म एवं सिद्धिगमन को उपपात कहते हैं । उपपात संबंधी वर्णन के कारण इस सूत्र का नाम औपपातिक है । यह सूत्र आचारांग का उपांग क्यों है ? इस प्रश्न का सयुक्तिक कारण निर्देश करते हुए बताया है कि आचारांग के प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा के आद्य उद्देशक के प्रथम सूत्र ‘एवमेगेसिंग नो नायं भवइ अत्थि वा में आया उववाइए...' में आत्मा का औपपातिकत्व निर्दिष्ट है और औपपातिक सूत्र में भी उपपात का विशेष वर्णन किया गया है । इस कारण यह आचारांग का उपांग कहलाता है। ____टीकाकार ने यथास्थान अनेक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक, सामाजिक, प्रशासनिक एवं शास्त्रीय व लोक जीवन से संबंधित शब्दों का अर्थ स्पष्ट किया है । जैसे- जल्ल, मल्ल, भौष्टिक, विडंबक, प्लवक, लासक, नूणइल्ल, तुंबवीणिक, लंख, मंख, तालाचर, चरिक, इन्द्र, कील, स्पंदमानिक, युग्म, व्यालक, आजिनक, सूत, बूर, पीठमर्द नागर आदि । यत्र तत्र पाठान्तरों एरं मतांतरों का भी निर्देश किया गया है । अन्त में टीकाकार ने अपने नाम के साथ अपने कुल और गुरु का नाम दिया है तथा बताया है कि प्रस्तुत (१४२)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy