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________________ अव + अय । सम् का अर्थ है- सम्यक्, अव का अर्थ है-आधिक्य और अय का अर्थ है-परिच्छेद । अर्थात् जिसमें जीवाजीवादि विविध पदार्थों का सविस्तार सम्यक विवेचन है अथवा जिसमें आत्मादि नाना प्रकार के भावों का अभिधेय रूप से समवाय समवतार सम्मिलिन है, वह समवाय है और वह प्रवचन पुरुष का अंगरूप होने से समवायांग है । इसमें यत्र तत्र पाठान्तर भी उपस्थित किए गए हैं और अनेक स्थानों. पर प्रज्ञापना सूत्र का एवं स्थान-स्थान पर गंधहस्ती महाभाष्य का भी उल्लेख है । में पाटन में टीका न तो अति विस्तृत है और न अति संक्षिप्त । यह वि.स. १९२० लिखी गई है। इसका ग्रंथमान ३५०५ श्लोक प्रमाण है । 1 व्याख्यां प्रज्ञप्ति- इस पर नियुक्ति आदि टीका ग्रंथ लिखे नहीं गए हैं। कहा जाता है कि आचार्य शीलांक ने इस पर संस्कृत टीका लिखी थी, लेकिन वर्तमान में वह उपलब्ध नहीं है । आचार्य अभयदेव सूरि विरचित टीका उपलब्ध । यह टीका मूलसूत्रों पर है एवं संक्षिप्त शब्दार्थ प्रधान है। इसमें यत्र तत्र अनेक उद्धरण अवश्य है, जिनसे अर्थ समझने में विशेष सहायता मिलती है । अनेक पदान्तर एवं व्याख्या भेद भी दिए हैं, जो विशेष महत्व के हैं । | प्रारंभ में सामान्य रूप में जिन भगवान को नमस्कार करने के अनन्तर वर्धमान, सुधर्मा, अनुयोग वृद्ध जन एवं सर्वज्ञ प्रवचन को नमस्कार किया है । उसके बाद प्राचीन चूर्णि १ टीका एवं जीवाभिगम आदि वृत्तियों की सहायता से पंचम अंग व्याख्या प्रज्ञप्ति का विवेचन करने का संकल्प किया है । व्याख्या प्रज्ञप्ति के विविध रूपों का शब्दार्थ भी बताया है, जिनका पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है । प्रत्येक शतक की टीका के अंत में टीकाकार ने एक सुन्दर आत्मस्पर्शी श्लोक दिया है । टीका का ग्रंथमान १८६१६ श्लोक प्रमाण है । अंत में गुरु परंपरा का परिचय दिया है और बताया है कि टीका का लेखन वि.सं. १९२८ में अणहिल पाटन नगर में समाप्त हुआ । जिन माणिक्य गणि के शिष्य अनन्त हंस गणि के शिष्य दानशेखर ने भगवती विशेष पदं व्याख्या नामक संस्कृत टीका लिखी है। उसे लघुवृत्ति अथवा विशेष वृत्ति भी कहते हैं । वृत्तिकार ने प्राचीन भगवती वृत्ति के आधार पर भगवती सूत्र (व्याख्या प्रज्ञप्ति) के कठिन पदों का व्याख्यान किया है । व्याख्यान में शब्दार्थ के साथ-साथ तत्संबद्ध विषय का विस्तृत विवेचन भी किया है । १. व्याख्या प्रज्ञप्ति चूर्णि के रचियता जिनदास गणिमहत्तर है, लेकिन निश्चयात्मक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता । क्योंकि परंपरा से महत्तर रचित निम्नांकित आगमों की चूर्णियाँ मानी जाती है, निशीथ, नंदी, अनुयोग द्वार, आवश्यक, दशवैकालिक और उत्तराध्ययन। (१३९)
SR No.002248
Book TitleJain Agam Sahitya Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayantsensuri
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages316
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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